जीवन सतत गतिशील रहता है। एक पल के लिए भी रूकता नहीं है। परिवार के तमाम लोग जो हमसे जुड़े रहते हैं इन सबको हमसे अपेक्षाएं भी रहती हैं और उनकी अपेक्षाएं हमसे होना स्वाभाविक है, क्योंकि इन सबका भरण-पोषण का दायित्व भी हम पर ही रहता है। कभी-कभी उत्तरदायित्वों का बोझ परिस्थितियोंवश हम पर लम्बे समय तक रहता है और उन उत्तरदायित्वों का बोझा उठाते-उठाते जीवन संध्या भी हो जाती है। हम आशाओं के सहारे ही जीवन गुजार देते हैं। जब आशाओं की पूर्ति का समय आता है, तब विडम्बना यह होती है कि हम नहीं होते। इन सबका विचार न करते हुए हमें निजस्वार्थ से ऊपर उठकर उदारता, स्नेह, सेवा, सद्भावना, सहनशीलता, दया, करूणा जैसे मानवीय गुणों को अंगीकार करते हुए केवल उसे अपना धर्म और कर्तव्य मानकर अपना कर्म करते रहो। यही आज की आवश्यकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता (प्रतिफल की इच्छा) हमारा सबसे बडा दुर्गण है, जो हमें अपनों से दूर करता है। इस दुर्गण के त्याग में ही हम सबका कल्याण है।