आज होलिका दहन है। इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि अर्था वसंत ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है। भाव प्रकाश के एक श्लोक का अर्थ है तिनके की अग्रि में भुने हुए (अधपके) शमो धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात, पित्त, कफ तथा क्षय के दोषों का दमन करता है। किसी भी अनाज की ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं तथा इसी प्रकार चना, मटर, गेहूं, जौ की गिद्दी को प्रह्वाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहा जाता है कि वह चना आदि का निर्माण करती है (माता निर्माता यवति) यदि यह पर्त (होलिका) न हो तो चना, मटर, गेहूं, जौ रूपी प्रह्वाद का जन्म नहीं हो सकता। जब ये अन्न भूने जाते हैं तो पहले ऊपरी पर्त अर्थात होलिका पहले जलती है और गिद्दी अर्थात प्रहलाद बच जाता है। होलिका माता के जयकारे लगते हैं। वह इसलिए कि होलिका रूपी पर्त ने अपने को जलाकर प्रह्वाद (चना, मटर आदि) को बचा लिया। यह वास्तव में नई फसल आने की खुशी में सामुहिक यज्ञ होते थे, जिनमें नये अन्न की आहूति भी दी जाती थी। यज्ञ की सुगन्ध से अन्न स्वस्थ तथा अधिक मात्रा में निकलता था। पर्व को मनाते समय उसके उद्देश्य और संदेश की जानकारी अवश्य होनी चाहिए।