कर्म की गति बडी गहन है। कर्म की भलाई-बुराई की परीक्षा उसके बाह्य रूप से नहीं बल्कि कर्ता की आन्तरिक भावना से की जाती है। दुष्ट लोगों का प्रतिकार बुराई से न करें, क्योंकि बुराई से बुराई की ही वृद्धि होती है। दूसरों को लाठी से नहीं प्रेम से वश में करना चाहिए। हमें किसी से घृणा भी नहीं करनी चाहिए। अपनी असफलता का दोष हम दूसरों के मत्थे मढ
देते हैं तथा उसका बदला लेने के लिए बुद्ध सर्प की भांति फन पटकते रहते हैं। संसार का कोई भी महापुरूष ऐसा नहीं हुआ, जिसने घृणा, द्वेष, परदोष दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी अच्छे कार्य की सिद्धि पाई हो। प्रतिशोध की भावना तब पैदा होती है, जब किसी से हम शत्रुता का भाव रखते हैं। याद रखे संसार में न कोई किसी का शत्रु होता है न मित्र। स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण यह विरोधाभास दिखाई देता है।