तन मन धन से की गई किसी भूल को छिपाने का प्रयत्न करना चोरी की संज्ञा में आता है। चोरी केवल धन अथवा पदार्थों की ही नहीं होती, बल्कि तन और मन के द्वारा किये गये अकर्तव्यों की भी हो सकती है। अकर्तव्य अर्थात जो धर्म और नैतिकता की कसौटी पर सही न उतरे। मनुष्य अपने अकर्तव्य तभी छुपाता है, जब वह समझता है कि किसी को बताने पर मेरी मान हानि होगी अथवा मुझे दण्ड का भागी होना पड़ेगा। स्मरण रखने वाली सच्चाई यह है कि दूसरों से छिपाने के बावजूद हमारे कुकर्मों का दण्ड अवश्य मिलेगा। जहां किसी की भी आंख न देखती हो वहां पर परमेश्वर की आंखे तो देखती ही हैं। भगवान चोर को, पापी को तो दिखाई नहीं देते, किन्तु भ्ज्ञगान तो उन पापियों के पाप कर्मों को देखते रहते हैं। कुकर्मी को चाहिए कि जब कभी भी अकर्तव्यों को करने का मन में विचार आये उस समय चिंतन करे कि मेरा बुरा संकल्प परमात्मा की पंजिका में लिख दिया गया है फिर भी मैं उसे वाणी और कर्मणा में यदि नहीं उतारूंगा और छिपाने योग्य कुछ नहीं करूंगा तो मुझ पर प्रभु की दया दृष्टि और क्षमा दृष्टि हो जायेगी। इसलिए अपने हित में इतना अवश्य करे कि यदि बुरे भाव मन में आ जाये तो उन्हें वहीं विराम दे दे और प्रभु से क्षमा याचना कर लें।