जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। यही परम सत्य है। मनुष्य खुशनसीब है कि उसे परमात्मा का दिया हुआ जीवन उपहार स्वरूप मिला है, परन्तु खेद की बात यह है कि सांसारिकता में घुसकर वह धन दौलत बटोरने में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने जन्म की सार्थकता और श्रेय पथ का कभी स्मरण तक नहीं होता।
युवावस्था आती है तो पाप-पुण्य में भेद नहीं करता, नैतिक-अनैतिक का ख्याल नहीं रखता, बस किसी तरह धन आये फिर जब वृद्धावस्था आती है, तब सिवाय पश्चाताप और सामने खड़ी मौत के कुछ नजर नहीं आता। धीरे-धीरे सारे साथी छूटने लगते हैं और अपने बनाये ताने-बाने में वह स्वयं फंसने लगता है।
अवसान पर जाने से पहले उसे अवसाद घेरने लगते हैं। कोई राह नहीं दिखती, जो उसके लिए रोशनी का हेतु बन सके, जो मौत के दर्द को सुकून (शान्ति) के अहसास में बदल सके। ऐसे में बिरले लोग ही होते हैं जिनके भीतर जागृति आती है। इनमें से अधिकांश ऐसे ही हैं, जो जीवन की अंतिम बेला तक भी नहीं जागते।
वे भूल जाते हैं कि जब मौत की शहजादी चलकर आयेगी, तब न सोना काम आयेगा न चांदी काम आयेगी। अगली यात्रा पर हमारे शुभ कर्म ही काम आयेंगे। इसलिए जो जीवन बचा है, उसमें मन-वाणी और कर्म से किसी के लिए बुरा न करे केवल शुभ और शुभ कर्म ही करे।