मनुष्य जीवन भर सक्रिय रहे। इस अमूल्य जीवन का एक क्षण भी नष्ट न करे, तभी इस जीवन की सार्थकता है। उसे किसी अच्छे उद्देश्य की पूर्ति और अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति में ही मानव जीवन की सार्थकता मानना चाहिए। जिसने विद्या, कला, साहित्य, सेवा, साधना आदि किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर ली, उसका जीवन सफल हुआ।
इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने शरीर और मन दोनों को दृढ बनाये। जीवन का मार्ग फूलों से बिछा हुआ नहीं है, इसमें पद-पद पर विक्षोम, उद्धेग और रोग उत्पादक कारण उपस्थिति होते रहते हैं।
मनुष्य का शरीर इतना दृढ होना चाहिए कि जल्दी से रोगी न हो और मन इतना दृढ होना चाहिए कि वह विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर भी विक्षुब्ध, उद्विग्न और उद्वेलित न हो, सदैव शांत और सम रहे तभी वह किसी लक्ष्य की पूर्ति में सही निर्णय लेने की स्थिति में रह सकता है। अभ्यास करने से ही वह हर स्थिति में संतुलित और शांत रह सकता है। काम-क्रोध, शोक आदि के वेगों से अपने को बचा सकता है।
इसके लिए आवश्यक है कि उसका मन एक ओर तो वज्र की तरह कठोर हो दूसरी ओर उसका मन फूल की तरह कोमल भी हो, जिससे वह अपने दुखों में संतुलन बनाये रखे तथा दूसरों को दुखों में देखकर आद्र और कातर हो जाये।