पूर्व जन्मों के पुरूषार्थ अर्थात पूर्व जन्मों के कर्मों के फल के अतिरिक्त भाग्य कोई चीज नहीं। अत: भाग्य की अवधारणा का परित्याग करके सत्पुरूषार्थ द्वारा कर्त्तव्य पालने, सत्संग तथा सतशास्त्रों के अध्ययन द्वारा जीव को अपना उद्धार करना चाहिए।
जैसे बलवान व्यक्ति बालक को आसानी से जीत लेता है, वैसे ही इस जन्म के शुभ कर्मों द्वारा भाग्य को जीता जा सकता है। इस जन्म में किये गये शुभ कर्म विफल हो जाये तो पूर्व जन्म के कुकर्म बलवान है, ऐसा जानकर खूब पुरूषार्थ करे, ताकि पूर्व जन्म के कुकर्मों को पराजित किया जा सके।
विष में से भी अमृत का वरण कर लेना चाहिए, सद्गुण शत्रु से भी ग्रहण कर लेने चाहिए। कभी-कभी विष भी औषधि का काम करता है। यदि उसके प्रयोग करने से किसी के प्राण बचते हैं तो उसके प्रयोग करने में कोई भी बुराई नहीं।
शत्रु भी विष के समान है, किन्तु शत्रु के गुण अमृत के समान है। इसलिए शत्रु रूपी विष से भी अमृत को अपना लेना चाहिए।
साथ ही परम मित्रों के अवगुणों को विष के समान उन्हें किसी भी दशा में न अपनायें। इन सिद्धांतों को अपनायेंगे तो खोटे कर्मों से निश्चय ही बचें रहेंगे।