जन्म और मृत्यु के अंतराल का नाम जीवन है। मनुष्य को यह जीवन बड़े सौभाग्य से मिलता है। उसके लिए यह स्वर्णिम अवसर है, परन्तु जीवन पाकर मनुष्य बहक जाता है, जबकि मनुष्य जीवन पाने का मुख्य उद्देश्य है आवागमन से मुक्ति पाना।
आदमी यहां एषणाओं की पूर्ति में ऐसा फंस जाता है कि वह अपना लक्ष्य ही भूल जाता है। कोई पुत्र मोह में, कोई धन कमाने और उसे संग्रह करने में अनैतिक कार्यों की ओर बढ़ जाता है।
जीवन का भयानक पक्ष है लोकेषणा। इन व्यामोहों के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से ग्रस्त होकर पुनरपि जन्म, पुनरपी मरण की यात्रा करता रहता है और दुख भोगता रहता है। इस दुखमयी यात्रा से बचने के उपाय सभी धर्म युगों से देते आये हैं। ऋषि, मुनि, संत, मनीषी सभी इससे मुक्ति के साधन बताते चले आ रहे हैं। उन्होंने समर्पण को सबसे बड़े उपाय के रूप में प्रतिपादित किया है।
परमात्मा तत्व को पाने का सबसे मुख्य साधन समर्पण ही है। बहुत से उदाहरण है, जिन्होंने समर्पण भाव से प्रभु के शरणागत होकर अपने जीवन को कृत्य-कृत्य कर लिया, क्योंकि समर्पण से जितने मानसिक विकार होते हैं वे स्वयं ही विसर्जित हो जाते हैं और आदमी अन्तर्मुखी होकर अपनी आत्मा को, अपनो को जान लेता है, आत्म साक्षात्कार कर लेता है।