जब हमें इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाती है तो हम आनन्द से फूल उठते हैं, परन्तु जब प्राप्त नहीं हो पाती तो निराश हो उठते हैं। इससे भी अलग जब वह प्राप्त होकर हाथ से निकल जाती है तो हम शोकातुर और व्यथित हो जाते हैं। हम पथार्दों के प्राप्त-अप्राप्त और खोने में ही सुख-दुख की अनुभूति करते हैं और इन्हीं द्वन्द्वों में जीवन निकल जाता है।
एक सत्य यह भी है कि मनोकामना की पूर्ति हो जाने पर उससे उपजी मन में आनन्द की स्थिति अल्प समय के लिए ही रहती है, क्योंकि हम उससे लम्बी अवधि तक संतुष्ट नहीं रह पाते और फिर कुछ और पाने के प्रयास में लग जाते हैं। कालान्तर में उसकी यही नियति होती रहती है। हम सारा जीवन ही असंतोष में व्यतीत कर देते हैं और दुखी रहते हैं।
जो ज्ञानी हैं, संतोषी हैं, उसे कुछ प्राप्त हो पाये अथवा न हो पाये वह हर परिस्थिति में स्वयं को सम रखेगा। वह न अधिक व्याकुल होगा न इतना प्रसन्न कि फूला न समाये। इन द्वन्द्वों से मनुष्य केवल अपनी शिशु अवस्था में ही मुक्त रहता है। जैसे शिशु भूख लगने पर रो लेता है कोई कष्ट होने पर चिल्लाता है, परन्तु जैसे ही पेट में दूध पहुंचता है, पीड़ा समाप्त हुई वह शांत और निर्विकार भाव से आसपास के पदार्थों को देखता है, उन्हीं में मगन हो जाता है। आसपास कौन है, उसके हितैषी हैं, मित्र हैं या शत्रु हैं, कोई क्या कर रहा है, उसके निकट समाप्त करने वाली वस्तुएं हैं अथवा संरक्षण देने वाली परिस्थितियां, उसका उनसे कोई लेना-देना नहीं। वह मोह से परे है, भय से दूर है, ईर्ष्या से रहित है, इसीलिए मुक्त है।