जैसे गंगा जी की यात्रा गोमुख से आरम्भ होकर गंगोत्री, देवप्रयाग, स्वर्गाश्रम, हरिद्वार, प्रयाग तथा काशी होते हुए गंगा सागर में लय को प्राप्त होती है।
वैसे ही मनुष्यादि प्राणियों की जीवन यात्रा गर्भाधान रूपी गोमुख से आरम्भ होकर शिशु, बाल, किशोर, तरूण तथा वृद्धादि अवस्थाओं को पार करते हुए श्मशान रूपी गंगा सागर में समाप्त हो जाती है अर्थात गोमुख गंगोत्री की तरह गर्भाधान की ओर से आ रहा मनुष्य मकान से होता हुआ थोड़े दिन सुख-दुख के थपेड़े खाता हुआ, हानि लाभ का स्वांग खेलता हुआ श्मशान में जा रहा है।
मानव पैदा हुआ मकान में, खेला-कूदा, मैदान में फिर पहुंच गया श्मशान में। मुर्दे बनते है गर्भाधान में, पलते हैं मकान में, जलते हैं श्मशान में, बनते हैं गर्भाधान में, पलते हैं मकान में, शादी-ब्याह किया, घाटा-मुनाफा देखा और अंत में जलते हैं श्मशान में।
मानव चलता-फिरता है, बोलता है, डोलता है तो ‘मानव’ और जलता है तो ‘मुर्दा’ संज्ञा को प्राप्त होता है। केवल नाम बदल जाता है, शरीर वही रहता है। जब तक चलता है ‘मानव’ जिस दिन जलता है उसी दिन ‘मुर्दा’।