भगवान कृष्ण ने गीता में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार कहा है, मनुष्य को चाहिए कि तीनों पर नियंत्रण रखें। जो स्त्री को नरक का द्वार कहते हैं वे अज्ञानी हैं। दादू भक्त कहते हैं ‘बहिन वीर कर देखिये नारी और भरतार, नारायण के पेड़ पर दादू सब परिवार।’ वास्तव में स्त्री पुरूष तो केवल वही है, जिसके साथ लोक मर्यादा के अनुसार विवाह सम्बन्ध हुआ है, जो पति-पत्नी के रूप में है, शेष तो सब पिता, भाई, पुत्र, माता, बहन, बेटी हैं। स्त्री शरीरधारी जीवों को चाहिए कि वे अपने पति के अतिरिक्त पर पुरूष को अपने से अधिक आयु वाले को पिता तुल्य, समान अवस्था वाले को भाई तथा छोटी अवस्था वाले को पुत्र तुलय समझे तथा उसी दृष्टि से देखे। वैसे ही पुरूषों को भी चाहिए कि अपनी विवाहिता पत्नी को ही स्त्री समझे शेष अन्य देवियों। अपने से अधिक अवस्था की हो तो माता तुल्य समझे, समान अवस्था वाली स्त्री को बहन तुल्य तथा अपने से छोटी अवस्था वाली को पुत्री तुल्य समझे तथा उसी दृष्टि से देखें। यदि ऐसी सबकी दृढ और पवित्र भावना हो तो कौन किसके लिए नरक का द्वार हो सकता है? अर्थात कोई नहीं। यदि स्त्री नरक का द्वार होती तो उसकी कोख से राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक और दयानन्द जैसी महान आत्माएं जन्म कैसे ले सकती थी?