संसार में हम जितने भी जीव हैं वे सभी उस जगत जननी (ईश्वर) की संताने हैं। यदि उसकी संतानों को, उसके बंदो को प्रेम नहीं किया जायेगा तो उसे दुख होगा। जिस प्रकार हमारी लौकिक मां भी अपने बच्चे को ठुकराने वाले से प्रसन्न नहीं हो सकती, बल्कि उसकी उपेक्षा करेगी। मां तो उसे स्नेह देगी और प्रसन्न भी रहेगी, जो उसकी सन्तान को प्रेम करेगा और प्रेम पूर्ण व्यवहार करेगा। जो उसकी सन्तान को दुत्कारेगा उससे तो वह नाराज ही रहेगी। मां की एक बड़ी इच्छा यह भी रहती है कि उसकी सारी सन्ताने आपस में लड़े नहीं, प्यार और सहयोग से रहे। इसके विपरीत यदि उसकी सन्ताने आपस में लड़ती हैं तो वह अपनी नाराजगी इस रूप में दिखाती है कि उन पर अपना प्यार बरसाना सीमित कर देती है। उसी प्रकार हमारी जगत जननी जब देखती है कि मेरा बंदा कैसी अज्ञानता में पड़ा हुआ है कि मेरी दूसरी सन्तानों को घृणा की दृष्टि से देख रहा है, उन्हें हीन समझ रहा है, भेदभाव, ऊंच-नीच पाले हुए है। मैंने तो अपनी शिक्षाओं में भेदभाव को ऊंच-नीच को कभी स्थान नहीं दिया फिर यह मानव मेरे आदेशों की अवहेलना कर अपने ही नियम बना रहा है, क्यों एक-दूसरे का शत्रु बन रहा है। यदि ये बैर-भाव नहीं त्यागते, ऊंच-नीच को अधर्म नहीं मानते, स्वयं को श्रेष्ठ तथा दूसरों को हीन समझते रहेंगे तो इनकी पूजा को ढोंग और आडम्बर समझूंगी। मेरी प्रसन्नता पानी है तो अभी से घृणा, द्वेष, ऊंच-नीच के भाव त्याग दें, सबसे प्रेम का व्यवहार करे, मेरे लिए सभी सन्ताने समान है। नवरात्र प्रथम दिवस का यही संदेश है।