प्रत्येक मनुष्य समाज में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है। वह प्रत्येक अवसर का उपयोग अपने गुणों, अपनी शक्ति सामर्थ्य के प्रकटीकरण हेतु करना चाहता है। वह आशा करता है कि लोग उसकी प्रशंसा करे। इससे उसका कोई हित भले ही न हो अहम अवश्य तुष्ट होता है। जब सद्गुण व्यक्ति के चरित्र का हिस्सा नहीं होते तब विकार प्रबल होते हैं। विकार युक्त मानसिकता वाला व्यक्ति जो भी करता है उससे न तो उसका अपना कोई हित होता है न समाज का। आज अच्छे कार्यों का लक्ष्य मात्र लोक प्रशंसा और स्वयं को स्थापित करना रह गया है। मनुष्य ने यह राह अपनी बुद्धि से चुनी है। परमात्मा की प्रेरणा इसके पूर्णत: विपरीत है, जबकि सृष्टि का भला परमात्मा की प्रेरणाओं को अंगीकार करने में ही है। धरती पर कई प्रकार के वृक्ष हैं जो फल देते हैं उनकी कभी पूजा वंदना नहीं की जाती, फिर भी वे फल देते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त आकाश में असंख्य तारे भी हैं, उनकी पूजा नहीं होती फिर भी वे चमकना नहीं भूलते। संसार में नित्य असंख्य फूल खिलते हैं उनमें से थोड़े ही पूजा स्थलों में अर्पित होते हैं, किन्तु शेष फूल भी वैसे ही अपना सौंदर्य और सुगन्ध बिखेरते हैं, क्योंकि यह उनका मूल स्वभाव है। इसलिए बिना प्रशंसा पाने की अपेक्षा के मनुष्य को भी इनसे शिक्षा लेकर सर्वहित के कार्य करते रहना चाहिए।