जीवन में कभी-कभी ऐसी परेशानियां आ जाती हैं, जिनकी हम कभी कल्पना भी नहीं करते। जिन व्यक्तियों में हमारा अटूट विश्वास होता है, वही हमारे साथ विश्वासघात कर जाते हैं। परायों की भांति शत्रुवत व्यवहार करने लगते हैं अथवा हमारे विरोधियों के पक्षधर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य दुखी, निराश, उद्विग्र तथा विषादग्रस्त हो जाता है। सन्ताप के कारण मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। समझ में ही नहीं आता क्या करें क्या न करें।
किस प्रकार विषम परिस्थिति से निबटा जाये। ऐसी परिस्थिति में संयम, धैय और शांत मन से विचार कर ही कोई आगे का कदम उठाना चाहिए। सर्वप्रथम हमें सोचना चाहिए कि जो कुछ घटित हो रहा है, उसके लिए कोई दूसरा दोषी नहीं है। दोष हमारे ही किसी पूर्व कर्म का है, जिसको हम दोषी मान रहे हैं, वह तो निमित्त मात्र है। यदि कोई दुखद समाचार दूरभाष या पत्र द्वारा प्राप्त हो तो क्या पत्र अथवा दूरभाष को उसका दोषी मानेंगे। ये तो केवल उस दुखद सूचना के वाहक मात्र हैं।
इसी प्रकार अपने अथवा पराये आपको कष्ट या समस्या देते हैं, जिसके कारण आप स्वयं को संकट में महसूस करते हैं वे तो मात्र माध्यम हैं ऐसा मानना ही आपके हित में है। उनके प्रति घृणा, क्रोध, द्वेष अथवा शत्रुता का भाव उत्पन्न कर कोई अनुचित या नकारात्मक प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करना अनुचित है, नकारात्मक चिंतन परिस्थितियों को और अधिक जटिल बनाकर आगे का रास्ता बंद कर देगा।