अज्ञान से इच्छाओं की उत्पत्ति होती है। कर्म से इच्छाओं की पूर्ति होती है और ज्ञान से इच्छाओं की निवृति होती है। इच्छाओं की उत्पत्ति दुख का मूल है, इच्छाओं की पूर्ति सुख का मूल है, परन्तु इच्छाओं की निवृति आनन्द का मूल है। जन्म जन्मान्तरों से हम आनन्द की खोज में ही तो लगे हैं और उसकी पूर्ति का साधन है इच्छाओं की निवृति।
इच्छाओं के जाल में फंसा व्यक्ति दास होता है और दास को कभी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। प्राण शक्ति बची रहे तो जीवन है। प्राण शक्ति का ह्रास हो जाये तो मृत्यु है अनावश्यक इच्छाओं की पूर्ति की चिंता में अपनी प्राण शक्ति को नष्ट न करो। इच्छाएं न्यूनतम रहेगी तो व्यर्थ की चिंता स्वत: ही मिट जायेगी।
सार्थक चिंतन भी स्वत: ही उत्पन्न हो जायेगा। जो नहीं करना चाहिए उसके न करने से जो करने योग्य है अर्थात प्रभु भक्ति स्वत: होने लगेगी। प्रभु की भक्ति में मन लगाना है तो सेवा को महत्व दो। सेवा किये बिना प्रभु भक्ति असम्भव है। सुन्दर समाज का निर्माण भी सेवा द्वारा ही सम्भव है। सेवा सर्वोपरि है। सेवा से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं। जन जन की सेवा करने वाला ही महान है। सेवा से विकृतियां समाप्त हो जाती हैं। सेवा करने से वंचित व्यक्ति भाग्यहीन है।