शरीर नाशवान है, क्षण भंगुर है। मनुष्य उसकी रक्षा के लिए उसके सौंदर्य के स्थायित्व के लिए घोर परिश्रम करता है। इस प्रकार दुख के कारणों को बढ़ाता रहता है। यदि उससे आधा प्रयास भी आत्मा की उन्नति के लिए किया जाये तो समस्त दुखों से ही छुटकारा मिल जायेगा, जो पुरूष शरीर के नष्ट और पैदा होने से दुखी-सुखी होते हैं, वें अज्ञानी हैं।
देह के नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता, उसमें कोई परिवर्तन भी नहीं होता। देह नाश से जब आत्मा का नाश सम्भव नहीं तो सदा सर्वदा निर्भय रहना चाहिए। याद रखो तुम चेतना आत्मा हो। यह शरीर तुम नहीं हो।
यह शरीर तो तुम्हें एक छोटी सी यात्रा के लिए मिला है, एक निश्चित समय के लिए मिला है। शरीर से तुम (आत्मा) नहीं यह शरीर तुमसे है, परन्तु आत्मिक स्मृति के न रहने से इस देह पर ही अभिमान करने लगते हो। तुम स्वयं (आत्मा) को जानो उसे जाने बिना न सुख की अनुभूति होती न मुक्ति का मार्ग ही प्राप्त होगा।