जो बीत चुका उसका मोह छोड़ना सरल नहीं। वर्तमान में जीने वालों की संख्या भी बहुत अधिक नहीं होती। वहीं, समय से आगे की सोचने और करने की क्षमता और संकल्प ढूंढने पर ही कदाचित मिले।
वास्तव में मनुष्य की दृष्टि संकुचित होती जा रही है। वह कुछ ज्यादा ही स्वार्थी हो गया है। प्राचीनकाल में लोग पेड़ लगाया करते थे ताकि आने वाली पीढियां इनकी छाया में बैठ सके, इनके फल खा सके। कुएं खोदे जाते थे और तालाब बनाये जाते थे जो किसी भी अनजान पथिक की प्यास बुझा सकें। एक प्रकार से यह पूरी सृष्टि का चिंतन था।
इसी प्रकार मनुष्य के लिए मात्र वर्तमान जीवन ही नहीं है, अगले जीवन को भी संवार लेने की प्रेरणा थी। कितने ही पुण्य कर्म, दान, जप, तप किये जाते थे ताकि आवागमन से मुक्ति हो, जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाये।
आज की मानव सभ्यता के विकास और ज्ञान के प्रसार ने मनुष्य को अधिक चैतन्य बना दिया है, अथवा यह कहें कि अधिक ‘चतुर’ बना दिया है, किन्तु उसे एक प्रकार से भूत और वर्तमान का कैदी बना दिया है। उस भविष्य को संवारने का उपक्रम हम नहीं कर पा रहे हैं, जिससे यह जन्म भी सुधरे और अगला जन्म भी सुधरे।