किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था की कामयाबी इसमें है कि शुरुआती से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा हासिल करने के मामले में एक निरंतरता हो। अगर किसी वजह से आगे की पढ़ाई करने में किसी विद्यार्थी के सामने अड़चनें आ रही हों तो उसे दूर करने के उपाय किए जाएं। लेकिन बीते कई दशकों से यह सवाल लगातार बना हुआ है कि एक बड़ी तादाद में विद्यार्थी स्कूल-कालेजों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और उनकी आगे की पढ़ाई को पूरा कराने के लिए सरकार की ओर से ठोस उपाय नहीं किए जाते।
इस मसले पर सरकार से लेकर शिक्षा पर काम करने वाले संगठनों की अध्ययन-रपटों में अनेक बार इस चिंता को रेखांकित किया गया है, लेकिन अब तक इसका कोई सार्थक हल सामने नहीं आ सका है। अब एक बार फिर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से सन 2022 की बोर्ड परीक्षाओं के विश्लेषण में बताया गया है कि दसवीं और बारहवीं के स्तर पर देश में लाखों बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं।
विश्लेषण के मुताबिक, पिछले साल पैंतीस लाख विद्यार्थी दसवीं के बाद ग्यारहवीं कक्षा में पढऩे नहीं गए। इनमें से साढ़े सत्ताईस लाख सफल नहीं हुए और साढ़े सात लाख विद्यार्थियों ने परीक्षा नहीं दी।
संभव है कि बीच में पढ़ाई छोडऩे के संदर्भ में किसी की प्रत्यक्ष की भूमिका नहीं दिखाई दे, लेकिन आखिर यह व्यवस्थागत कमियों से ही जुड़ा हुआ सवाल है, जिसमें स्कूली शिक्षा के स्वरूप से लेकर सामाजिक-आर्थिक कारक अपनी भूमिका निभाते हैं। शिक्षा मंत्रालय के विश्लेषण में आंकड़ों के मुताबिक जो पैंतीस लाख विद्यार्थी दसवीं के बाद ग्यारहवीं कक्षा में पढऩे नहीं गए, उनमें पचासी फीसद ग्यारह राज्यों से थे।
इसी तरह, पिछले साल बारहवीं के बाद 23.4 लाख विद्यार्थियों ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी। इनमें से सतहत्तर फीसद ग्यारह राज्यों से थे। यानी करीब 8 लाख विद्यार्थी दसवीं और बारहवीं में पढ़ाई छोड़ देते हैं तो यह किसी भी सरकार के लिए बेहद चिंता की बात होनी चाहिए और यह समग्र शिक्षा व्यवस्था से लेकर सरकारी कल्याण कार्यक्रमों के जमीनी स्तर पर अमल पर सवालिया निशान है। गौरतलब है कि सरकार की ओर से आए दिन देश की शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव करने और उसे समावेशी बनाने को लेकर दावे किए जाते हैं, घोषणाएं की जाती हैं। लेकिन वे शायद ही कभी वास्तव में जमीन पर उतरती दिखती हैं।
नीतिगत स्तर पर शिक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलती दिखती है, मगर इसके बरक्स स्कूली शिक्षा में बीच में पढ़ाई छोडऩे की प्रवृत्ति नीतिगत स्तर पर नाकामी या फिर उदासीनता का ही सूचक है। यह समझना मुश्किल है कि इतने लंबे वक्त से यह चिंता कायम है और इस मसले पर किसी हल तक पहुंचना मुश्किल है! यह जगजाहिर तथ्य है कि एक ओर स्कूल-कालेज में शिक्षा पद्धति में तय मानक बहुत सारे विद्यार्थियों के लिए सहजता से ग्राह्य नहीं होते, वहीं पढ़ाई में निरंतरता नहीं रहने के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारक भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं।
एक गरीब परिवार का विद्यार्थी मेधावी होने के बावजूद कई बार अपने परिवार की आर्थिक स्थिति, जरूरत और पृष्ठभूमि की वजह से उसे मजबूरन स्कूल छोडऩा पड़ जाता है। जाहिर है, स्कूल-कालेज की पढ़ाई बीच में छोडऩे का मसला शैक्षिक संस्थानों तक पहुंच, पठन-पाठन के स्वरूप से लेकर गरीबी और अन्य कई कारकों से जुड़ा हुआ है और इसके समाधान के लिए सभी बिंदुओं को एक सूत्र में रख कर ही देखने की जरूरत होगी।
(लेखक-विजय गर्ग)