बापू के विचारों में अवगाहन कोई आसान काम नहीं है। महापुरुष का जीवन ऐसा ही होता है कि इधर से छूने की कोशिश करें तो दूसरा किनारा छूट जाता है। बापू के निजी सचिव महादेव भाई देसाई के बेटे नारायण भाई देसाई का बचपन बापू की गोद में बीता था। यही कारण है बापू के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखना नारायण भाई के लिए ही संभव था। उन्होंने ‘सब के गांधी’ नाम से बापू की जीवनी गुजराती में लिखी थी, जिसका हिन्दी अनुवाद किया है बीकानेर के रामनरेश सोनी ने। राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर की ओर से 12 खंडों में प्रकाशित ये पुस्तिकाएं अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी कई भ्रांतियों का निवारण करने में सक्षम हैं।
गांधीजी के जीवन में कथनी और करनी के बीच जो अभेद था, वह हजारों तरुणों को उनकी ओर आकृष्ट करता था और उनके कहे अनुसार काम करने को प्रेरित करता था। उनकी इसी अलौकिक विशिष्टता ने भारतीय राजनीतिक पटल पर सर्वथा अनजान चेहरे मोहन दास करमचंद गांधी को जन-जन का चहेता नेता बना दिया। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद चंपारण, अहमदाबाद के मजदूर-मालिक विवाद और खेड़ा सत्याग्रह में भारी सफलता प्राप्त करके उन्होंने अपनी व्यूहरचना का परिचय दे दिया था। इन आंदोलनों की सफलता से लोगों को भरोसा हो गया था कि यह नेता जो काम हाथ में लेता है, उसे पूरा करता है। इस भरोसे ने अनेक लोगों को बड़े आंदोलन में कूद पडऩे का मनोबल प्रदान किया।
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टरी छोड़कर फिनिक्स में छापेखाने में अक्षर जोडऩे के साथ-साथ खेती का काम भी किया था। साबरमती में उन्होंने हथकरघे पर खादी बुनी थी। अहमदाबाद के सर्किट हाउस में जब विशेष अदालत में मुकदमा चला तो न्यायाधीश मि. ब्रूमफील्ड ने गांधीजी से उनका धंधा पूछा। गांधीजी ने कहा – ‘किसान’ और ‘बुनकर’। इस प्रकार उन्होंने दो विशाल वर्गों के साथ अपनी आत्मीयता व्यक्त की।
गांधीजी का यह उत्तर देखते ही देखते पूरे देश में फैल गया और असंख्य किसानों और बुनकरों के हृदय में इसने प्रतिघोष किया कि यह हमारे बीच का ही आदमी है। गांधीजी की बोलने व लिखने की भाषा बहुत सरल थी। इससे वे अनपढ़ लोगों तक भी पहुंच सके। गांधीजी का मानना था कि किसानों को जब अपनी अहिंसक शक्ति का ज्ञान होगा, तब दुनिया की कोई सत्ता उनके समक्ष टिकने वाली नहीं है। और इसका प्रमाण दुनिया ने देखा जब किसानों की जागरुकता के फलस्वरूप चंपारण में सवा सौ वर्षों से चली आ रही तिनकठिया की अन्यायी जोत व्यवस्था समाप्त हुई।
गांधीजी मन भर उपदेश देने के बजाय एक छटांक आचरण को अधिक महत्व का मानते थे और यही आचरण उनका माटी से मर्द बनने का सबसे बड़ा साधन था। गोपाल कृष्ण गोखले और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे दो राष्ट्र नेताओं ने गांधीजी के बारे में एक-सी बात कही थी कि उन्होंने हमें माटी से मर्द बनाया। गांधीजी ने अपने विचारों के द्वारा संसार को जो एक नया दर्शन दिया, अपने जीवन के द्वारा उस दर्शन को अमल में लाकर बताया। सत्य गांधीजी को जन्म घुट्टी में मिला था। गांधीजी का सत्य मात्र एक व्यक्तिगत गुण नहीं था, वह एक सामाजिक गुण था। उनका व्यक्तित्व जितना समन्वयकारी था, उतना ही विवेकशील था।
कथनी-करनी में अभेद के कारण उनमें स्फटिक जैसी पारदर्शिता दिखायी देती थी। गांधीजी प्रत्येक काम को ईश्वर प्रदत्त समझते थे और छोटे-बड़े सभी कामों में अपनी भक्ति अर्पित कर सकते थे। उनके व्यक्तित्व में तर्कसंगतता और श्रद्धा का सुमेल था। वे मनुष्य को मनुष्य के रूप में ही देखने का प्रयास करते और जिससे भी मिलते, उसे समाज ने अन्य तमाम जिन आवरण से ढक रखा हो, उन्हें एक तरफ रखकर सीधे उसके हृदय में प्रवेश कर लेते।
बापू के अनुसार, जिस तरह गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी और अन्य ग्रह-नक्षत्रों को संतुलित और व्यवस्थित रखता है, उसी तरह अहिंसा समाज को संतुलित रखती है। वे अहिंसा को प्रेम के आविर्भाव के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि सच्ची अहिंसा कर्म में तभी प्रकट होती है, जब वह मनुष्य के मन व वाणी में भी उतरी हो। उन्होंने अहिंसा का समूह में उपयोग करके बताया। अहिंसा की सामूहिक शक्ति से दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया की प्रथा हिल उठी और आखिर समाप्त हो गयी।
गांधीजी रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से अहिंसक समाज – व्यवस्था खड़ी करना चाहते थे। ऐसा समाज जिसमें हर तरह का शोषण नष्ट होना चाहिए। ऐसे समाज की व्यवस्था के लिए प्रशासन तंत्र कम से कम होना चाहिए। इस तरह वे मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस की अवधारणा में यकीन रखते थे।
महिलाओं में राष्ट्रीयता की भावना भरना गांधीजी के राष्ट्र निर्माण कार्य का एक महत्वपूर्ण अंग था। नारी-शिक्षण के महान आचार्य महर्षि कर्वे ने कहा था, नारी जागृति का जितना काम मैंने आधी सदी में किया, उतना गांधीजी ने नमक-सत्याग्रह में कर दिया।
गांधीजी के विलक्षण व्यक्तित्व से अनभिज्ञ लोग अक्सर एक सवाल उठाते हैं कि गांधीजी की ऐसी क्या विशेषता थी कि जिसके कारण स्वतंत्र देश की संसद ने उनको ही राष्ट्रपिता कहा। वह विशेषता थी कि गांधीजी ने इतने विशाल और इतनी विविधता वाले देश को एक भावना से जोड़ा। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस राष्ट्र को मानवों का महासागर कहा था। सागर-जल में जिस प्रकार सारी नदियां मिलकर एकरूप हो जाती हैं, वैसे ही यहां सारी विभिन्नताएं एकता में समा जाती हैं। गांधीजी का पुरुषार्थ इस देश को ऐसी ही एकता प्रदान करने का था। हर समय राष्ट्र की आवाज बनकर उसे ज्वार में बदल देने की भूमिका गांधीजी निभाते थे। इसी से सुभाष बाबू ने उन्हें ‘राष्ट्रपिता कहा और उनके इस संबोधन ने समग्र देश की आवाज को प्रतिध्वनित किया।
गांधीजी के बारे में एक गलतफहमी प्रचलित है कि भारत के विभाजन के लिए वे ही जिम्मेदार थे। अटल बिहारी वाजपेयी जब मोरारजी भाई के मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री थे, तब गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में आयोजित सभा की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था, हम लोग भी बहुत अर्से तक ऐसा मानते थे कि इस देश के विभाजन के लिए गांधीजी जिम्मेदार थे। आपातकाल के दरमियान जेल में जो अध्ययन करने का मौका मिला, तब हमें समझ में आया कि इसके लिए उत्तरदायी गांधीजी नहीं, वरन् दूसरे ही थे।
अपनी मृत्यु से एक दिन पहले गांधीजी ने लिखा था कि आर्थिक और सामाजिक आजादी विहीन आजादी अधूरी है। जैसे गुलामी को सहन करने को वे तैयार नहीं थे, वैसे ही गरीबी, भुखमरी, आर्थिक विषमता या ऊंच-नीच की भावना को भी वे सहन करने को तैयार नहीं थे। इन विषमताओं को दूर करने की दिशा में कदम बढ़ाकर ही बापू को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।
-मोहन मंगलम