इटावा- लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीत कर राष्ट्रीय राजनीति में अहम योगदान निभाने वाली समाजवादी पार्टी (सपा) को उत्तर प्रदेश में मिली अभूतपूर्व सफलता की वजह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से छिटक कर आये बागी नेताओं को माना जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
राजनीतिक पंडितो का मानना है कि संसदीय चुनावों में सपा के इंडिया गठबंधन को उत्तर प्रदेश में खासी कामयाबी मिली है लेकिन इस कामयाबी की इबारत तो वास्तव में 2019 में हुए बसपा और सपा के गठबंधन से लिखी जा चुकी थी जिसके बाद एक के बाद बसपा के कद्दावर नेता सपा की ओर आकर्षित हुये जो अंतत: सपा की सफलता और बसपा के पतन का कारक सिद्ध हुये।
राजनीतिक विश्लेषक गुलशन कुमार ने कहा “ 2024 के संसदीय चुनाव में समाजवादी पार्टी को जिस अंदाज में 37 सीटे हासिल हुई है, उसकी पृष्ठभूमि वास्तव में 2019 के सपा बसपा गठबंधन से शुरू होती है। 2019 के संसदीय चुनाव में सपा को मात्र पांच सीट मिली थीं लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा 111 सीटे हासिल करने में कामयाब हो गई और 2024 के संसदीय चुनाव में मिली समाजवादी पार्टी को 37 सीटे निश्चित तौर पर 2019 के गठबंधन के साथ ही सपा के साथ खड़े हुए बसपा के कद्दावर नेता इसके पात्र माने जा सकते है।
2014 में बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था जिसके बाद बसपा ने सपा के साथ 2019 में गठबंधन किया जिसका नतीजा उसे दस सीटों के रुप में मिला वहीं सपा को मात्र पांच सीटों से संतोष करना पड़ा। लेकिन जैसे ही 10 सीटे बसपा के खाते में आई वैसे ही मायावती ने सपा से गठबंधन तोड दिया । यह बात बसपा के कई नेताओं को नागवार गुजरी और उन्होने मायावती को आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया ।
बसपा के प्रभावी नेताओं ने मायावती के मुकाबले सपा प्रमुख अखिलेश यादव को बेहतर राजनेता माना। मायावती की कार्यशैली से खफा बसपा के प्रभावी और जिम्मेदार नेताओं ने अपने आप को बसपा से अलग करते हुए सपा से रिश्ता जोड़ना जरूरी समझा । इस लिस्ट में दर्जनों प्रभावी और जिम्मेदार नेताओं के नाम लिए जा सकते हैं जो कहीं ना कहीं मायावती की कार्य शैली से बेहद नाराज चल रहे थे।
2017 के विधानसभा के चुनाव में सपा मात्र 47 सीटों पर सिमट करके रह गई थी लेकिन जब 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव आया तो नतीजे के तौर पर समाजवादी पार्टी के खाते में 111 सीटे हो गई जबकि बसपा को मात्र एक ही विधानसभा सीट से संतोष करना पड़ा।
वर्ष 2024 के संसदीय चुनाव में सपा के पीडीए फार्मूले के तहत अपनी तैयारी की। इसी बीच इंडिया गठबंधन के तहत अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में अपने उम्मीदवारों की घोषणा शुरू कर दी। पहले तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सपा के पीडीए फार्मूले का मजाक उड़ाया लेकिन जब मतगणना के बाद नतीजे सामने आए हैं तो सब हक्के-बक्के रह गए हैं।
दरअसल, सपा ने बसपा की मुख्य धारा से जुड़े दर्जन भर लोगो को चुनाव मैदान में उतारा। एटा सीट से देवेश शाक्य,इटावा सीट से जितेंद्र दोहरे,जालौन सीट से नारायण दास अहिरवार,अंबेडकरनगर सीट से लालजी वर्मा, श्रावस्ती से राम शिरोमणि वर्मा, बस्ती से राम प्रसाद चौधरी, मोहनलालगंज से आर. के.चौधरी, कौशांबी से पुष्पेंद्र सरोज, आंवला से नीरज मौर्य, जौनपुर से बाबू सिंह कुशवाहा,बांदा से कृष्णा देवी,बलिया से सनातन पांडे और रॉबर्ट्सगंज से छोटेलाल खरवार को जीत हासिल हुई है।
2024 के संसदीय चुनाव में आए नतीजो के अनुसार ऐसा कहा जा रहा है कि बसपा की इतनी बुरी हालत उसके कोर वोटर जाटव समाज के खिसकने से हुई है । दलित आबादी में करीब 55 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाला जाटव समाज इस बार उसके हाथ से फिसल गया है । संविधान और आरक्षण बढ़ाने के नाम पर इस चुनाव में अधिकतर सीटों पर जाटव वोट बैंक कही आधा तो कहीं तिहाई हिस्सा बसपा से छिटककर सपा कांग्रेस गठबंधन की तरफ चला गया है । इससे पहले 2022 के विधानसभा के चुनाव में बसपा ने सीट भले एक जीती थी लेकिन वोट शेयर 12.9 फ़ीसदी के साथ जाटव वोट बैंक बचाने में सफल रही थी । इस आंकड़े को इस बात से बल मिलता है कि प्रदेश की दलितों की आबादी 21 फ़ीसदी से कुछ अधिक है जिसमें जाटव वोट बैंक करीब 13 फीसदी है।
बसपा लोकसभा चुनाव में एक समय 27.42 फ़ीसदी मत हासिल कर चुकी है लेकिन आज उसका मत प्रतिशत घट करके 9.14 रह गया है। इंडिया और एनडीए दोनों गठबंधन से दूरी बनाकर अकेले चुनाव मैदान में उतरना बसपा को बहुत भारी पड़ा। पार्टी अपने सबसे खराब दौर में पहुंच गई है । पिछले चुनाव में सपा से गठबंधन करके 10 लोकसभा सीट जीतने वाली पार्टी ने अपनी सारी सीटे गंवा दी है यहां तक की बसपा का ग्राफ 1989 से भी नीचे चला गया है जब बसपा ने पहला चुनाव लड़ा था तब 1989 में बसपा ने 9.90 फीसदी वोटो के साथ लोकसभा में दो सीटे जीती थी। इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत गिरकर के 9.14 रह गया है।
कांग्रेस और सपा जहां चुनाव अभियान में जोर-शोर से यह प्रचार करने में लगी थी कि भाजपा 400 पार इसलिए चाहती है ताकि संविधान बदला और आरक्षण को खत्म किया जा सके लेकिन आरक्षण और संविधान के मुद्दे पर सबसे आगे रहने वाली बसपा ने इस मुद्दे पर चुप्पी सारे रखी। इससे दलित वोट बैंक में यह संदेश गया कि शायद मायावती अब बहुजन आंदोलन से दूर हो गई है।
सपा के प्रदेश सचिव गोपाल यादव का दावा है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीडीए फार्मूले के तहत संसदीय चुनाव लड़कर के जो जनमत हासिल किया है वह वास्तव में तारीफे काबिल है। इसका फायदा समाजवादी पार्टी को असली तौर पर 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव में हर हाल में मिलेगा।