Monday, December 23, 2024

धर्म: श्राद्ध और तर्पण

दिवंगत पितरों की तृप्ति के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक जो कुछ भी सत्पात्र को देश-काल के अनुसार दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध के लिए सबसे पहले देवताओं का आह्वान, हवन एवं पूजन किया जाता है। (मनुस्मृति, अ. 3/23 )।
दिवंगत पितरों के उद्देश्य से विहित देश व काल में कच्चा-पक्का अन्न, सोना आदि द्रव्यों का विधिपूर्वक दान श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध में हवन, पिण्डदान तथा ब्राह्मण भोजन कराना प्रधान कार्य है।
 हवन, पिण्डदान तथा ब्राह्मण भोजन होने से विधिपूर्वक श्राद्ध कहा जाता है। असमर्थ होने पर हवन, पिण्डदान तथा ब्राह्मण भोजन इनमें से किसी को भी कर देने से विधिपूर्वक श्राद्ध हो जाता है। श्राद्ध करने से पितरों की पूर्ण रूप से तुष्टि होती है। किसी भी श्राद्ध में सर्वप्रथम विश्वदेवों का आह्वान-पूजन उसके बाद श्राद्ध तथा श्राद्ध के बाद पितरों का विसर्जन, पितरों के विसर्जन के बाद देवताओं का विसर्जन करना चाहिए।
तर्पण का अर्थ होता है तृप्त करना। तर्पण में कुश, तिल और जल आवश्यक है। कुछ तिथियों में तिल निषिद्ध है। कुश और जल सभी तिथियों में आवश्यक है। तर्पण नित्य करना चाहिए, श्राद्ध के द्वारा एक बार भोजन कर लेने पर बहुत दिनों तक पितरों को भूख नहीं लगती है। पायस का पिण्डदान करने से पितरों को एक वर्ष तक भूख नहीं लगती है किन्तु उन्हें प्यास प्रतिदिन लगती है। अत: तर्पण प्रतिदिन करना चाहिए। स्नान के बाद तर्पण अवश्य करना चाहिए।
तर्पण गीले वस्त्रों में करना उचित है, तर्पण के बाद वस्त्र को निचोडऩा चाहिए। पराशर स्मृति के अनुसार हम लोग प्रतिदिन कितनी भूलें करते हैं। एक साधारण अतिथि का निरादर करने से बहुत बड़ा पाप होता है। वायु के रूप में आए हुए देवताओं, ऋषियों व पितरों का निरादर करना कितना अक्षम्य अपराध होगा। देवता-पितर नित्य-प्रतिदिन एक अंजलि जल की आशा से हमारे यहां आते हैं और निराश होकर लौट जाते हैं।
आजकल जलांजलि के द्वारा उनको कोई तृप्त नहीं कर रहा है। किन्तु उनके द्वारा प्राप्त जल, अन्न आदि वस्तुओं का हम उपभोग करते हैं। हम कितने कृतघ्न हैं कि देवताओं के द्वारा प्राप्त जल-सागर में से एक अंजलि जल उठाकर कृतज्ञता के रूप में भी उन्हें समर्पित नहीं कर सकते, तर्पण देकर उन्हें तृप्त करने की चाह ही नहीं होती? आज इसी का दुष्परिणाम है कि अकाल दुर्भिक्ष बढ़ रहे हैं। समय से वृष्टि नहीं हो रही है।
अतिवृष्टि, अनावृष्टि से जनता पीडि़त है। परिवार में भी विद्रोह मचा हुआ है। परिवार के प्राणियों में कोई स्नेह नहीं। पिपासु एवं कुभुक्षित देवता व पितर बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं। बुद्धि भ्रष्ट होने से मानव का व्यवहार पाशविक व्यवहार से भी अधिक गिर जाता है। यदि हम परिवार में सुख-शांति चाहते हैं तो देव, ऋषि, पितरों के लिए 24 घण्टे में से कम से कम पांच मिनट का समय देकर उन्हें सन्तुष्ट करें।
श्राद्ध विभिन्न ऋषियों के मत से भिन्न-भिन्न हैं। विश्वामित्र जी ने श्राद्ध के बारह भेद बतलाए हैं। कूर्म पुराण में पांच भेद बताये गये हैं। धर्मसिन्धु के उत्तराद्र्ध में, तृतीय परिच्छेद में श्राद्ध प्रकरण की टिप्पणी में इन सब भेदों का उल्लेख मिलता है। धर्मसिन्धु ग्रन्थकार ने श्राद्ध के मुख्य चार भेद स्वीकार किए हैं, जो निम्नवत हैं- तत्र श्राद्धं चतुर्विधम् (धर्म सिन्धु उत्तराद्र्ध परि., 3), 1. पार्वण श्राद्धम, 2. एकोदिष्ट श्राद्धम, 3. नान्दी श्राद्धम, 4. सपिंडीकरण श्राद्धम।
1. पार्वण श्राद्ध- पिता, पितामह, प्रपितामह इन तीन के उद्देश्य से विहित पिण्ड पार्वण श्राद्ध कहलाता है।
2. एकोदिष्ट श्राद्ध- एक के उद्देश्य से किए जाने वाले श्राद्ध को एकोदिष्ट श्राद्ध कहते हैं।
3. नान्दी श्राद्ध- पुत्र जन्म और विवाहादि में जो श्राद्ध किया जाता है उसे नान्दी श्राद्ध कहते हैं। इसी को दृष्टि श्राद्ध भी कहते हैं।
4. सपिण्डीकरण श्राद्ध- मरे हुए के बारहवें दिन में पिण्ड और उध्र्व संयोजन रूप कार्य को सपिण्डीकरण कहते हैं। यह पार्वण और एकोदिष्ट का ही रूप है। श्राद्ध और तर्पण सनातन धर्म के मुख्य अंग हैं।
यह बात बिल्कुल सत्य है कि श्रद्धा और भक्ति से समर्पित भोज्य चोष्यादि पदार्थों से पद्मनाभ श्रीहरि के तृप्त होने पर देवता, ऋषि पितरों के सहित सारा विश्व तृप्त हो जाता है क्योंकि भगवान श्रीहरि सभी प्राणियों के अन्तरात्मा है अथवा देवता, ऋषि, पितरों की जो पूजा की जाती है, वह सब भगवान श्रीहरि को ही प्राप्त होता है।  पितरों का श्राद्ध और तर्पण करने का दूसरा मुख्य कारण यह है कि पितृ-गण देवताओं की अपेक्षा अधिक सन्निकट हैं।
वे श्राद्ध एवं तर्पण के द्वारा शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वे प्रसन्न होकर परिवार में सुख-शान्ति तथा अच्छी वृष्टि प्रदान करते हैं।  मानव जीवन में श्राद्ध का बड़ा महत्व है। जब तक अपने पितरों का श्राद्ध नहीं किया जाता है, तब तक वे प्रेत-योनि में रहते हैं और वे पितर प्रेत होकर हिस्टीरिया, ज्वर आदि जैसी बीमारी परिवार में उत्पन्न करते हैं।
आदित्य पुराण में कहा है- विधिपूर्वक श्राद्ध करने पर कुल में कोई दु:खी नहीं होता है। प्रेतात्मा श्राद्ध के द्वारा देवताओं से सम्बद्ध होते हैं। देवताओं व पितरों के साथ सखाभाव प्राप्त कर वे अपने परिवार का कल्याण करते हैं। अपने वैभव के अनुसार विधिपूर्वक जो मनुष्य श्राद्ध करता है, वह कीट से लेकर ब्रह्मस्तन्व पर्यन्त सम्पूर्ण जगत् को तृप्त करता है। श्राद्ध के करने पर कुछ भी व्यर्थ नहीं होता है। भोजन से जो बचा हुआ, जो उच्छिष्ट है, उसे पितरों के उद्देश्य से कुत्ते आदि पशुओं को दें तो पशु योनि में रहने वाले पितर लोग तृप्त होते हैं।
नागरखण्ड में लिखा है-उच्छिष्ट भी श्राद्ध व्यर्थ नहीं होता है। यदि विधिपूर्वक श्राद्ध करें तो उसका बहुत महत्व होता है। यमराज की उक्ति है कि जो पितर, देवता और ब्राह्मण की पूजा करते हैं वे सभी प्राणियों के अन्तरात्मा भगवान विष्णु की ही पूजा करते हैं। अन्त्यकर्म दीपक में लिखा है कि श्राद्ध करने से पितर लोग प्रसन्न होकर मोक्ष भी प्रदान करते हैं।
पितामह लोग प्रसन्न होने पर आयु, सन्तान धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष तथा राज्य प्रदान करते हैं। पितरों के पूजन से कोई वस्तु दुर्लभ नहीं रहती है। यदि हम किसी संकट, कारागार या नौकरी के प्रतिबंध में या दूर देश में हैं तो ब्राह्मणों के द्वारा श्राद्ध कराना चाहिए जो जिसका धन, जिसकी सम्पत्ति लेता है, वह यदि उसका श्राद्ध नहीं करता है तो पाप का भागी होता है। वास्तव में हमारे जीवन में श्राद्ध और तर्पण का बहुत महत्व है।
यद्यपि श्राद्ध के प्रमुखत: चार भेद हैं परन्तु वस्तुत: श्राद्ध दो प्रकार के होते हैं- 1. पार्वणक श्राद्ध, 2. एकोदिष्ट श्राद्ध। पार्वणक श्राद्ध के जो भेद और उपभेद हैं, उन्हीं में सभी प्रकार के श्राद्धों का अन्तर्भाव हो जाता है। याज्ञवल्क्य स्मृति की व्याख्या करने वाले विज्ञानेश्वरजी ने पार्वणक और एकोदिष्ट भेद से श्राद्ध के दो ही प्रकार माने हैं। जब तक मृतक को सपिण्डीकरण श्राद्ध के द्वारा दिव्य पितरों के साथ सम्बद्ध नहीं किया जाता है, तब तक वह प्रेतत्व से मुक्त नहीं होता और पितृत्व को भी नहीं प्राप्त करता।
पिता को श्राद्ध द्वारा देवताओं के साथ सम्बद्ध कर देना पितृत्व की प्राप्ति कहा जाता है। आश्विन के पितृपक्ष में तो श्राद्ध अवश्यमेव करना चाहिए। संभव हो तो इस पक्ष में घर के द्वार पर या घर के आंगन में या फिर घर में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि शक्ति व रुचि हो तो घर में श्राद्ध करने के बाद गंगा आदि के तट पर भी इस अवसर पर पिण्डदान रूपी श्राद्ध करना चाहिए। पार्वण श्राद्ध के लिए गयाजी-फल्गुतट व काशी गंगा तट पर श्राद्ध करना अति उत्तम है। पितृ पक्ष में सभी पितर अपने-अपने घर आते हैं।
धर्मसिन्धु में कहा है- श्राद्धकर्ता के पिता श्राद्धकाल को उपस्थित सुनकर परस्पर मन से ध्यान कर मन के वेग से घर पर आते हैं और वायु रूप से ब्राह्मणों के साथ भोजन करते हैं। वहीं श्राद्ध कर्म नहीं होने से पितर अपने घर को ही शाप देकर चले जाते हैं, इसलिए फल, फूल और जलतर्पण से पितरों को अवश्य तृप्त करना चाहिए। समस्त सनातन धर्मी जनों को श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए, इसका त्याग कदापि न करें और तर्पण-जलांजलि प्रतिदिन स्नान के पश्चात् अवश्य दें।
स्वामी गोपाल आनन्द बाबा

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