Tuesday, June 25, 2024

‘एकला चलो ‘ 2024 में टीएमसी की मजबूरी, है या रणनीति ?

इंडिया गठबंधन को करारा झटका देते हुए, विपक्षी गुट के मुख्य घटक दलों में से एक, तृणमूल कांग्रेस ने आज पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लडऩे का फैसला किया। राज्य की सभी 42 लोकसभा सीटों के लिए टीएमसी ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। वैसे लोकसभा चुनाव को लेकर सभी पार्टियों का एक-दूसरे पर आरोपों का सिलसिला जारी है पर देखने योग्य है कि इसी बीच इंडिया गठबंधन को ममता बनर्जी के अकेले चुनाव लडऩे के ऐलान साथ बड़ा झटका लगा है। टीएमसी प्रमुख ने ‘एकला चलो रे का नारा बढ़ाते हुए गठबंधन को अलविदा कह दिया है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ऐलान के बाद कांग्रेस के सामने जो विकल्प बचे हैं, वे इस प्रकार हैं। अनुमान ये लगाया जा रहा है कि जिस प्रकार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच लंबे समय तक सीटों के बंटवारे पर मंथन होता रहा और अंत में कांग्रेस की झोली में 17 सीटें आ गईं, उसी तरह से पश्चिम बंगाल में भी इस बात का कयास लगाया जा रहा है कि ममता कुछ सीटों पर अपने उम्मीदवार वापस ले लें।वैसे तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक बयान पिछले कुछ दिनों से काफी सुर्खियों में चल रहा था । 2024 के लोकसभा चुनाव में एकला चलो की चुनावी रणनीति से जुड़े बयान पर तमाम तरह की सियासी अटकलें लगाई जा रही है।
कुछ लोगों का मानना था कि ममता बनर्जी इसी बहाने केंद्र की राजनीति में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी और खुद को विपक्ष का प्रधानमंत्री चेहरा बनवाना चाहती हैं लेकिन ममता बनर्जी जब कहती है कि टीएमसी आगामी लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करने वाली, तो ये उनकी मजबूरी और पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत को बनाए रखने की चिंता है। दरअसल ममता बनर्जी के सामने 2024 में विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनने का लक्ष्य नहीं है बल्कि अपने घर को बचाने की इससे भी बड़ी चुनौती है । 2024 में पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत दांव पर होगी और इसकी वजह है राज्य में बीजेपी का बढ़ता जनाधार। यही वजह है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की जनता को ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती जिससे आगामी लोकसभा चुनाव में टीएमसी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए।
गौरतलब है कि जब दो मार्च को नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा होती है, उसी दिन मुर्शिदाबाद जिले के सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव का भी नतीजा आता है। मुस्लिम बहुल इस सीट पर 2011, 2016 और 2021 में टीएमसी की जीत हुई थी लेकिन इस साल के उपचुनाव में ये सीट टीएमसी के हाथों से निकल जाती है। कांग्रेस उम्मीदवार बायरन बिस्वास बड़े अंतर से इस सीट पर जीत जाते हैं।इसके बाद ही ममता बनर्जी की ओर से ‘एकला चलो को लेकर नया बयान गूंजने लगा था । ममता बनर्जी कहती रहती थी कि जो भी लोग बीजेपी को हराना चाहते हैं, वे टीएमसी को वोट करेंगे। आगे बढ़कर वे कहती थी कि जो लोग प्रधानमंत्री और कांग्रेस को वोट दे रहे हैं, वास्तविक रूप से भाजपा को ही वोट दे रहे हैं। इसी के साथ ममता बनर्जी साफ कर देती थी कि 2024 में टीएमसी किसी के साथ नहीं जाएगी और राज्य की जनता के समर्थन के बल पर अकेले चुनाव लड़ेंगी।
सबसे पहली बात ये है कि ममता बनर्जी की राजनीति का आधार ही पश्चिम बंगाल है। पश्चिम बंगाल से बाहर टीएमसी का लोकसभा के नजरिए से कोई अस्तित्व नहीं है। वैसे पिछले 20 साल से टीएमसी पूर्वोत्तर के 7 राज्यों के अलावा गोवा जैसे राज्यों में भी अपना जनाधार बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसमें पार्टी को ख़ास सफलता हासिल नहीं हुई है। टीएमसी के पास इस वक्त कुल 23 लोकसभा सांसद हैं और ये सभी सांसद पश्चिम बंगाल से हैं। इसी से जुड़ा अहम पहलू है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का राजनीतिक अस्तित्व ही कांग्रेस और प्रधानमंत्री विरोध पर टिकी है।
ऐसे में अगर ममता बनर्जी की ओर से कोई भी एक संदेश ऐसा गया कि वो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष के उस मोर्चे का हिस्सा बनने की मंशा रखती हैं जिसमें कांग्रेस और प्रधानमंत्री भी जुड़ सकते हैं तो ये पश्चिम बंगाल में टीएमसी के राजनीतिक विचारधारा के बिल्कुल खिलाफ चला जाता । ममता बनर्जी की वजह से 2011 में पश्चिम बंगाल की राजनीति बिल्कुल बदल गई। उस वक्त तक यहां वाम मोर्चा , कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का ही राजनीतिक अस्तित्व था। वहीं भाजपा एक तरह से गौण अवस्था में थी। 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी का ऐसा जादू चला कि पश्चिम बंगाल में 34 साल से चली वाम मोर्चा की सत्ता नेस्तनाबूद हो गई और यहां से राज्य के लोगों को एक नया विकल्प मिल गया। इसके बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में टीएमसी का एकछत्र राज कायम हो गया। इसी का नतीजा था कि 2016 और 2021 के विधानसभा चुनाव में कभी धुर विरोधी रहे वाम मोर्चा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा। हालांकि इन दोनों ही पार्टियों का साथ भी ममता बनर्जी की सत्ता के लिए कुछ ख़ास खतरा नहीं बन पाया। 2016 और 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी भारी जीत हासिल कर सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही।
इस समय पश्चिम बंगाल में पिछले 10 साल में धीरे-धीरे कर भाजपा ममता बनर्जी के लिए बड़ा खतरा बनती जा रही है । 2011 के विधानसभा चुनाव में भाजपा कुल 294 में से 289 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी। उस वक्त पश्चिम बंगाल में भाजपा की क्या हालत थी, ये इसी से पता चलता है कि उसके 285 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। हालांकि भाजपा 4 % वोट हासिल करने में कामयाब रही थी। यही वो चुनाव था जिसमें एक तरह से पहली बार भाजपा ने भी पूरे राज्य में अपने उम्मीदवार उतारे थे। पश्चिम बंगाल में 2011 और उसके बाद का वक्त जहां वाम मोर्चा के अवसान का दौर था, वहीं बीजेपी के उत्थान की कहानी भी शुरू हो चुकी थी। 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 291 सीटों पर चुनाव लड़ी और पहली बार 3 सीटें जीतने में सफल रही। उससे भी बड़ी बात ये हुई कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल में पहली बार विधानसभा चुनाव में 10 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने के पड़ाव को पार कर ली और यहीं से राज्य में तृणमूल कांग्रेस के लिए अब वाम मोर्चा और कांग्रेस की बजाए भाजपा मुख्य विरोधी पार्टी बनने की राह पर चलने लगी। 2016 में ममता बनर्जी की पार्टी भले ही 211 सीटें जीतकर सरकार में बनी रही, लेकिन ये भाजपा ने ये जरूर संकेत दे दिया था कि आने वाले वक्त में टीएमसी के लिए वहीं सबसे बड़ा खतरा साबित होने वाली है।
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन ने इसे साबित भी किया। जहां 2014 लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी 42 में से 34 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, वहीं भाजपा को सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा का वोट शेयर इस चुनाव में 17% से ज्यादा रहा था। ये एक तरह से इस बात का संकेत था कि पश्चिम बंगाल में ममता और कांग्रेस का वोट धीरे-धीरे भाजपा की तरफ खिसक रहा था। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ममता बनर्जी के बादशाहत को एक तरह से खत्म करने के साथ ही पश्चिम बंगाल की राजनीति में सीपीएम और कांग्रेस को विपक्ष के तौर पर हाशिए पर धकेलने का काम कर दिया। 42 लोकसभा सीटों में से भाजपा 18 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही। उसे 16 सीटों का फायदा हुआ था। वहीं भाजपा का वोट शेयर भी 40त्न से ऊपर पहुंच गया। टीएमसी 12 सीटों के नुकसान के साथ सिर्फ 22 सीट ही जीत पाई। लोकसभा के नजरिए से 2019 में पश्चिम बंगाल में भाजपा ने टीएमसी के साथ मुकाबले को करीब-करीब बराबरी का बना दिया। इस चुनाव के नतीजों से ये तो तय हो ही गया कि लोकसभा में 2024 तक भाजपा , टीएमसी को भी पीछे छोड़ सकती है। भाजपा के इस प्रदर्शन के पीछे एक ख़ास बात थी। टीएमसी विरोधी वोट तेजी से भाजपा के पाले में एकजुट होते गए और सीपीएम व कांग्रेस का अस्तित्व ही गायब होने लगा। 2019 में जहां कांग्रेस सिर्फ दो तो सीपीएम एक भी लोक सभा सीट नहीं जीत पाई।
ममता बनर्जी को इसी बात का डर है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा सीट जीतने में टीएमसी से आगे नहीं निकल जाए। टीएमसी के पास लोकसभा में 2009 में 19, 2014 में 34 और 2019 में 22 सीटें थी। वोट शेयर की बात करें, तो टीएमसी को 2009 में 44.63त्न, 2014 में 39.05त्न और 2019 में 43.3त्न रहा था। वहीं भाजपा के पास लोकसभा में 2009 में एक सीट, 2014 में 2 सीट और 2019 में 18 सीटें थी। वोट शेयर की बात करें, तो भाजपा को 2009 में 6.14त्न, 2014 में 17.02त्न और 2019 में 40.7त्न रहा था। ये आकड़े बताते हैं कि भाजपा पश्चिम बंगाल में लोकसभा के नजरिए से बहुत आगे बढ़ गई है और भाजपा के जनाधार में इसी तरह की बढ़ोतरी देखी गई तो 2024 में टीएमसी को पीछे छोडऩा ज्यादा मुश्किल का काम नहीं है।
ये भी तय है कि पश्चिम बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच वोटों के ध्रुवीकरण की वजह से भाजपा बड़ी ताकत बन गई है लेकिन सागरदिघी उपचुनाव के नतीजों से ममता बनर्जी को डर सता रहा है कि मुस्लिम वोट उसके पाले से निकलकर कांग्रेस के पास जा रहा है और अगर 2024 के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ तो ये भाजपा के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा। ममता बनर्जी की असली चिंता ये है कि अगर 2024 के चुनाव में कांग्रेस और सीपीएम अगर मिलकर टीएमसी के परंपरागत वोट में से थोड़ा बहुत भी हासिल करने में कामयाब रही है, तो भाजपा बहुत आसानी से टीएमसी से ज्यादा सीटें जीत लेगी। इसलिए वो राज्य की जनता को ये संदेश दे रही हैं कि 2024 में तृणमूल कांग्रेस का सिर्फ पश्चिम बंगाल के लोगों के साथ चुनावी गठबंधन होगा। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में 2024 में मुकाबले को टीएमसी बनाम भाजपा ही बनाए रखना चाहती है। इसमें वो कांग्रेस या सीपीएम को हिस्सेदार कतई नहीं बनाना चाहती है। अगर वो इन दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने को राजी हो जाती हैं तो पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में जबरदस्त ध्रुवीकरण हो सकता है और इसी को रोकने के लिए ममता बनर्जी को बार-बार कहना पड़ रहा है कि टीएमसी एकला चलो की नीति पर ही 2024 के चुनाव में उतर रही है ।
सीपीएम और कांग्रेस के साथ दूरी बनाए रखना सिर्फ 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से ही ममता बनर्जी की मजबूरी नहीं है। जिस तरह से 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदर्शन किया है, ममता बनर्जी कतई नहीं चाहेंगी कि आगामी लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा ऐसा प्रदर्शन कर दिखाए जिससे यहां कि जनता आगामी विधानसभा चुनाव यानी 2026 में भाजपा को ही टीएमसी का विकल्प समझने लगे। ममता बनर्जी चाहती है कि वो 2024 में वो पश्चिम बंगाल से ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतकर चुनाव बाद भाजपा विरोधी मोर्चा या गठबंधन बनने के हालात में अपनी शर्तों को मनवाने की बेहतर स्थिति में हों।
पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक हालात है, उसके लिहाज से ये तभी मुमकिन होगा जब ममता बनर्जी वहां की जनता में संदेश दे पाएगी कि अभी भी टीएमसी की विचारधारा सीपीएम और कांग्रेस विरोधी ही है। ये साफ है कि 2024 में ममता बनर्जी के सामने पश्चिम बंगाल के गढ़ को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है और वो हर चुनावी रणनीति इसको जेहन में रखकर कर बनाएंगी। भले ही भाजपा विरोधी बाकी दल कुछ भी कहते रहें, ममता बनर्जी का एकला चलो का रवैया पिछले कई सालों से जारी है और इसी के दम पर वो पश्चिम बंगाल में टीएमसी का रुतबा बचाए रखने में कामयाब भी होते रही हैं।
-अशोक भाटिया

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