मनीषी चिरकाल से ही सत्संग और स्वाध्याय का महत्व बताते आये हैं। अच्छे संग से शुभ कार्यों को करने की प्रेरणा मिलती है, विचारों में पवित्रता आती है, कर्त्तव्य परायणता की शिक्षा मिलती है, शुभ और पवित्र विचारों में दृढ़ता आती है। पवित्र ग्रंथों का स्वाध्याय भी सत्संग है, उनसे ज्ञान बढ़ता है, शुभ-अशुभ में भेद करने का विवेक आता है।
हम हर समय सत्संग और स्वाध्याय नहीं कर सकते। हमें अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए सत्संग और स्वाध्याय के लिए समय निकालना है। सत्संगी बनने का यह अर्थ नहीं कि व्यवहार में लोक मर्यादा का उल्लंघन हो, बल्कि सत्संगी और स्वाध्यायी को और भी अच्छी प्रकार से लौकिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए हर्ष और शोक से परे रहना है।
सत्संगी और स्वाध्यायी को और भी अच्छी प्रकार से लौकिक दायित्वों को पूरा करते हुए हर्ष और शोक से परे रहना है। सत्संगी और स्वाध्यायी लोक रीति, कुल रीति तथा धर्म रीति का पालन करते हुए बड़ों की सेवा तथा गुरूजनों की आज्ञा का पालन करता है।
अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर केवल सत्संग और स्वाध्याय में ही बैठे रहने से भगवान प्रसन्न नहीं होते। धर्म पालन के साथ अपने कर्तव्यों, अपने उत्तरदायित्वों का पालन मनुष्य का सर्वोपरि कर्तव्य है।
सत्संग की महिमा अपार है, वह पापी को पुण्यात्मा बना देता है और महात्मा को भगवान बना देता है, जबकि कुसंग पुण्यात्मा को भी पापी बना देता है। हेे प्रभो हमें कुसंग से बचाओ।