हम प्रसन्न हैं तो आसपास के सारे लोग एवं प्रकृति भी हमारे साथ मुस्कुराती है लेकिन हम जब उदास हो जाते हैं तो खुशी का यही वातावरण हमारी उदासी को और बढ़ाने लगता है। ऐसा इसलिये कि हम स्वयं ही किसी न किसी विचार या घटना को लेकर अनावश्यक तनाव बनाये रखते हैं और कुढ़ते रहते हैं। होता यह है कि हम अपने गमों एवं दुखों को बहुत बढ़ाकर देखते हैं या फिर दूसरों की संपन्नता तथा खुशी हमसे सहन नहीं होती है।
प्रकृति का एक निश्चित एवं अखंड कानून है कि आप यहां जो बोते हैं, वही काटते हैं। अगर आपने अपने व्यवहार से प्रेम, हंसी और प्रसन्नता दूसरों को दी है तो फिर आपको भी बदले में यही सब मिलता है लेकिन यदि हम स्वयं को दूसरों के सामने दुखी बताते हैं तो फिर बदले में दुख और उदासी ही मिलती है।
मन में शांति एवं प्रसन्नता का भाव बनाये रखने का लाभ यह भी है कि इससे दूसरों को भी आपकी शक्ल देखकर प्रसन्न रहने की शक्ति प्राप्त होती है तथा दुख कम महसूस होते हैं। आपने कभी स्वयं भी महसूस किया होगा कि आप बीमार होने पर जिस डॉक्टर के पास जाते हैं, उस डॉक्टर के प्रसन्न एवं खुशमिजाजी स्वभाव से ही आपकी आधी बीमारी ठीक हो जाती है।
जब हम मायूस से दिखते हैं तो अनायास ही सबका ध्यान हम पर केंद्रित हो जाता है। पूछा जाता है कि क्यों क्या बात है। इस स्थिति में यदि हम सहज भाव से जवाब दें कि कोई बात नहीं तो सामने वाला निश्चित ही यही समझेगा कि इसकी तो शक्ल ही मनहूस है।
इससे तो दूर ही रहना चाहिये जबकि हमेशा विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्नता बिखेरने वाले लोगों से सभी उम्र के लोग मिलने की इच्छा रखते हैं। प्रसन्न रहने वाले लोग स्वस्थ भी रहते हैं इसीलिये प्रसन्नता को ‘गीता’ में मन का तप कहा गया है तथा जीवन में इस गीता को उतारने का एक ही उपाय है कि हम स्वयं प्रसन्न रहें।
वास्तव में प्रसन्नता का संबंध हमारे आसपास की क्रियाओं से होता है क्योंकि प्रकृति में होने वाली प्रत्येक घटना से मनुष्य अपने मनोभावों की प्रतिछाया को खोजता है। हम हमारे वातावरण एवं भावों से इतने अधिक प्रेरित होते हैं कि किसी के आगमन पर यदि बारिश हो या कोई बड़ा कार्य हो जाये तो इसे उस व्यक्ति के अच्छे कदमों की संज्ञा दी जाती है जबकि किसी के दुखद निधन या किसी गंभीर परिस्थिति में बरसात होने पर माना जाता है कि भगवान भी रो रहा है।
संकट एवं खुशी के समय हमारा ऐसा सोचना स्वाभाविक होता है लेकिन यदि हम सकारात्मक स्थिति होने पर ऐसा सोचें कि इससे बड़ी मुसीबत भी आ सकती थी जो नहीं आयी तो हमारे मन की प्रवृत्ति परिवर्तित हो जायेगी। इसीलिये स्वेट मार्डन ने भी लिखा है कि ‘यदि हम प्रसन्न हैं तो सारी प्रकृति ही हमारे साथ मुस्कुराती हुई प्रतीत होती है।’
प्रसन्नता को ज्ञान की प्राप्ति आत्मविकास एवं सफलता पाने का अति आवश्यक घटक भी माना गया है क्योंकि खुश रहने से ही मन में अच्छे विचारों का जन्म होता है तथा मन अच्छे कामों में लगता है, परिणामस्वरूप सफलता भी मिलती है जिससे हर काम के लिये नित नई ऊर्जा भी प्राप्त की जा सकती है। प्रसन्नता को सदैव बनाये रखने के संबंध में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक फिलाडर जानॅसन का कथन है कि जब भी कोई विपत्ति आए तो उसे एक चुनौती के रूप में स्वीकारो और सोचो कि सबसे बुरा तो अभी आने को है, प्रसन्नतापूर्वक खड़े हो जाओ।
ऐसी विचारधारा अपनाने से हमें किसी भी तकलीफ को सहने की शक्ति भी मिलती है तथा मन में उत्साह का संचार होता है। साथ ही इस सीख से जीवन में भी मदद मिलती है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्नता नहीं बनाये रखने से वह स्थिति सुधार तो नहीं जायेगी। यदि मेरे भाग्य में विधाता कुछ निश्चित कर चुका है तो फिर उसे कोई भी भौतिक कारक या घटना बदल नहीं सकती।
इतना जानने पर भी उस हालत में गम करने का क्या फायदा है क्योंकि अगर मुझे मरना है तो क्या मैं दुखी होकर उस घटना को बदल सकता हूं। नहीं, तो फिर क्यों न उस स्थिति को सामान्य मानकर स्वीकारा जाए जो अपने कर्मों के कारण मिलती है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि आप किसी के दुख में दुखी न होकर खुशियां मनायें लेकिन जहां तक हो सके, चेहरे पर प्रसन्नता को रखिये क्योंकि खुशी/प्रसन्नता मन में रोशनी करने वाला वह दीपक है जो अपनी आभा को बिखेरकर चित्त को निश्चल एवं शांत बनाए रखता है।
जब उदासी का माहौल हो, तब हमें स्वयं से एक सवाल पूछना चाहिए कि वह स्थिति मेरे लिये किस प्रकार लाभकारी हो सकती है या मैं इससे जीवन के प्रति क्या सीख ले सकता हूं। क्या मेरी किस्मत यही है कि मुझसे इससे भी भयंकर तकलीफ से नहीं गुजरना पड़ा। इन सवालों का जवाब हमारे मन से सकारात्मक ही मिलता है जिससे हमारे मन की प्रवृत्ति एकदम बदल जाती है।
वास्तव में ऐसे लोग बड़े विरले ही होते हैं जो मुश्किलों में भी धैर्य नहीं छोड़ते तथा प्रसन्न बने रहते हैं। वैसे भी अगर हमारी मुश्किलें या नाकामयाबी किसी के सामने आती हैं तो हमारे प्रति उस समय लोग भले ही सहानुभूति या प्यार जतायें लेकिन बार-बार की यही आदत या दुखी चेहरा देखकर सामने वाले के मन में हमारी छवि एक असफल व्यक्ति या ‘शक्ल ही मनहूस है’ वाली बन जाती है।
इससे बाहर निकलने के लिये क्या यह सही और संभव नहीं है कि अपने दुख को या नाकामयाबी की पीड़ा को अपने में ही रहने दें तथा अपनी गलतियों से सबक लेकर पुन: प्रयास करें। इस बारे में प्रसिद्ध कवि शेख सादी ने कितना सटीक कहा है कि प्रसन्नचित व्यक्ति कभी असफल होता ही नहीं अर्थात् प्रसन्नता ही हर वस्तु और व्यक्ति के बीच सेतु के रूप में कार्य करती है।
वैज्ञानिक पहलू से भी रोने की अपेक्षा हंसने या प्रसन्न रहने में कम ऊर्जा खर्च होती है इसलिये खुद भी मुस्कुराते रहिए और दूसरों में भी इसे फैलाने का प्रयास कीजिए क्योंकि मुस्कुराना एक कला है और निराशा को भगाना इसका गुरूमंत्र है।
– अजय जैन ‘विकल्प