जो संतुष्ट है, तृप्त है, उसके चेहरे पर प्रसन्नता रहेगी, जो भीतर से असंतुष्ट है, व्याकुल है, बेचैन है, उसके चेहरे पर प्रसन्नता कभी आ ही नहीं सकती।
असंतोषी को संसार की सारी दौलत दे दें, सारी सुख-सुविधाएं दे दें। सब कुछ देने के पश्चात उससे पूछे कि संतुष्ट हो तो यही कहेगा थोड़ा और होता तो संतुष्ट हो जाता, क्योंकि यह जो इंसान की खोपड़ी है, कभी भरती नहीं, संतुष्ट होती ही नहीं, व्याकुल रहती है और व्याकुल रखती है। कभी प्रसन्न नहीं रहने देती।
प्रसन्नता के फूल तो तभी खिलेंगे, जब संतोष आ जायेगा, सब्र आ जायेगा। सब्र आ जाये तो एक बूंद में आ जाये। यदि न आये तो सागर उड़ेल देने के बाद भी नहीं आता। प्रसन्नता और सुख की कामना है तो परिश्रम और ईमानदारी से जो मिले उसी में संतुष्ट रहना सीखो।
संतुष्टि आपके जीवन को उत्सवमय, आनन्दमय, उल्लासमय बनाती है। यदि प्रभु की भक्ति की चरम सीमा तक पहुंचना है तो वहां पहुंचने की एक ही सीढी है प्रसन्नतापूर्वक उसके द्वार तक जाओ जो मिला है, उसका शुक्र मनाओ, संतुष्ट रहो, तभी उसकी महानता में स्वयं को विलीन कर सकते हो।