संसार में कोई व्यक्ति ऐसा है, जो अपने से अधिक किसी दूसरे को आगे बढ़ता, प्रगति करता देखना चाहता है तो वह केवल पिता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई रिश्ता इस स्तर पर किसी के लिए शुभकामना नहीं कर सकता, जिस स्तर पर एक पिता करता है।
प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसका बेटा- उसकी बेटी तरक्की की उस ऊंचाई को छूये कि उसकी पहचान उसके बेटे-बेटी के नाम से की जाने लगे। प्रत्येक पिता अपनी सन्तान के लिए अपनी क्षमताओं से अधिक उसकी प्रगति के लिए प्रयास करता है।
सन्तान की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह अपनी इच्छाओं को दबाता है, अपने अरमानों का गला घोंटता है, भले ही सन्तान अपने पैरों पर खड़ी होकर किसी योग्य बनकर यह कहे कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है? यदि पुत्र को जीवन में मां-बाप के अथक प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिलती, तो ऐसी स्थिति में पिता स्वयं को ही एक भाग्यहीन मनुष्य मानने लगता है। ऐसे पिता की मानसिक स्थिति को केवल परमात्मा ही जान सकता है।
बहुधा हर पिता पूरा प्रयास करता है कि सन्तान का जीवन बने, उसे किसी प्रकार के कष्टों या अभावों का सामना न करना पड़े। फिर भी यदि कुछ कमी रह जाती है तो उस कमी को परिस्थिति जन्य मानकर माता-पिता को दोष न दें। प्रभु के भी अपने नियम हैं, कर्म, भोग, सिद्धांत के आधार पर जो प्रारब्ध संतान को प्राप्त हुआ है उस पर किसी का वश नहीं। एक कहावत है जो पूर्णत: सत्य भी है कि मां-बाप जन्म के साथी हैं कर्म (भाग्य) के साथ नहीं।