Monday, November 18, 2024

हमास को क्या नए इंटरनैशनल पार्टनर्स मिल गए हैं?

इजराइल-हमास संघर्ष से रूस को फायदा होने वाला है, क्योंकि अमेरिकी सैन्य सहायता के लिए इजराइल के अनुरोध से हथियारों और यूक्रेन से ध्यान भटकने का खतरा है, जबकि तेल की बढ़ती कीमत मॉस्को की अर्थव्यवस्था को सहारा देती है।इस घटना के बाद इजरायल की अभेद्य सुरक्षा पर सवाल उठे हैं। लेकिन, अभी गुरिल्ला वॉर की जो रणनीति हमास ने इस्तेमाल की है, वह कोई बड़ी रणनीति नहीं बल्कि छोटी-मोटी कमजोरियों का ही फायदा उठाकर इस हमले को अंजाम दिया गया है। ऐसा लगता है कि हमास को बड़े इंटरनैशनल प्लेयर्स का साथ मिल गया है। कहा जा रहा है कि इसमें रूस की ओर से मदद मिली है। इसके अलावा उनके नए मिसाइल लॉन्चर के स्रोत के बारे में भी सवाल उठ रहे हैं। इसे मुहैया कराने वालों में ईरान, रूस और चीन में से कोई भी देश हो सकता है। हमास को इस तरह का समर्थन चिंता का विषय है और यह एक नया पैटर्न है।

 

ईरान बीते दिनों नेपथ्य में रहा है, लेकिन इस घटना के बाद हमास के साथी जैसे कि हिजबुल्लाह अब एक्टिव मोड में हैं। दिन कुछ पहले वहां के सुप्रीम लीडर खामनेई ने ट्वीट किया था कि Zionist regime ख़त्म हो रहा है। ( ज़ायोनीवाद एक राष्ट्रवादी आंदोलन है जो 19वीं शताब्दी में फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक मातृभूमि की स्थापना को सक्षम करने के लिए उभरा, यह क्षेत्र यहूदी परंपरा में लगभग इज़राइल की भूमि के अनुरूप है। इज़राइल की स्थापना के बाद, ज़ायोनीवाद एक विचारधारा बन गई जो समर्थन करती है “इज़राइल राज्य का विकास और सुरक्षा” )

सोचना होगा कि क्या वो कोई संदेश था?

ईरान नहीं चाहता कि सउदी अरब और इजरायल करीब आएं क्योंकि ऐसा उनके रणनीतिक हितों के ख़िलाफ़ है। ऐसे में खामनेई का बयान कई संकेत देता है।
यूक्रेन के बाद क्या अब डिप्लोमैसी की नई पिच तैयार हो रही है?

यूक्रेन यूद्ध अभी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ है। यूक्रेन के बहाने रूस और चीन ने अपनी पश्चिम विरोधी रणनीति को बहुत धार दी थी। हालांकि अब यूक्रेन संघर्ष में रूस के लहजे से लगता है कि यह अब समाधान की ओर जा रहा है, क्योंकि रूस मान रहा है उससे वहां ग़लती हुई और उसे अब पीछे हटना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि अब हालिया तनाव पश्चिम विरोध की नई टर्फ होगा, ऐसा ही कुछ अमेरिकी गुट भी करता दिखेगा। नए हालातों में रूस और चीन हमास को सपोर्ट करते दिखें, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। ये दोनों देश अब बेहद अरब समर्थक और फिलिस्तीन समर्थक अप्रोच दिखा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी इसी तरह के कूटनीतिक तेवर अख्तियार किए जा सकते हैं।

सवाल यह भी है कि हमास को इतने हथियार कहां से मिले? क्या अमेरिका के छोड़े हथियार पाकिस्तान के हाथ लगे?

कुछ रिपोर्टस कह रही हैं कि ये वो हथियार हैं, जो पश्चिम ने यूक्रेन को दिए थे। इनमें से कुछ ब्लैक मार्केट तक पहुंचे, जहां से ये हमास के पास आ गए, एक सवाल यह भी है कि क्या ऐसा कुछ दक्षिण एशिया में भी हुआ है? क्या ऐसा हुआ है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से निकलते वक़्त इसी तरह हथियारों की बड़ी तादाद वहां छोड़ दी है? कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि पाकिस्तान ने भी इनमें से कुछ हथियार खरीदे हैं। हो सकता है कि यहां भी ये ब्लैक मार्केट में बेचे गए हों।

क्या हमास अकेला है या और भी साथी हैं बैकग्राउंड में?

यह सोचने वाली बात है क्या हमास ने यह सब कुछ अकेले किया है। देखना होगा कि क्या हिजबुल्ला भी इजरायल की ओर से घोषित किए गए युद्ध में शामिल होगा?

इजरायल पर हमास के हमले के बाद से दुनिया युद्ध जैसे हालात देख रही है। उधर रूस-यूक्रेन तनाव भी अभी ख़त्म नहीं हुआ है और इस वजह से बीते करीब 19 महीनों से दुनिया बहुत उथल-पुथल से गुजर रही है। हालिया संघर्ष का दुनिया के डिप्लोमैटिक पैटर्न और वर्ल्ड ऑर्डर पर क्या असर पड़ सकता है।

इजरायल को दहलाने वाले इस हमले का मास्टरमाइंड है मोहम्मद डेफ (Mohammed Deif)। वह हमास की मिलिट्री विंग का कमांडर है। उसी की निगरानी में हमास के दहशतगर्दों ने इजरायल पर पूरे हमले को अंजाम दिया। हमले के बाद हमास की ओर से जो विडियो जारी हुआ, उसमें भी आवाज़ डेफ की ही बताई जा रही। डेफ वैसे उसका छद्म नाम है, जिसका मतलब होता है अतिथि। इस नाम की वजह भी दिलचस्प है। वह इजरायली खुफिया दस्ते से बचने के लिए हर रात अलग-अलग फिलिस्तीनी के घर बीताता है, जो दहशतगर्दों के हमदर्द होते हैं। यही वजह है कि डेफ हमास का इकलौता सैन्य प्रमुख है, जो इतने लंबे वक़्त तक ज़िंदा है।

आतंक का दूसरा नाम कैसे बना डेफ?

डेफ के बारे में सार्वजनिक तौर पर काफी कम जानकारियां उपलब्ध हैं। उसका नाम भी एक रहस्य है। कई लोग कहते हैं कि वह हमेशा से डेफ नाम से ही जाना जाता था। वहीं, कुछ लोग दावा करते हैं कि वे उसे जन्म वाले नाम यानी मोहम्मद दीब इब्राहिम अल-मसरी के रूप में जानते थे। मीडिया में उसकी एक ही तस्वीर उपलब्ध है, जो काफी पुरानी है। इजरायल की खुफिया फाइलें बताती हैं कि डेफ का जन्म 1960 के दशक में गाजा के एक शरणार्थी शिविर में हुआ।

गाजा पर उस समय इजिप्ट का क़ब्ज़ा था। फिर साल 1967 में इजरायल ने इसे अपने अधिकार में ले लिया। इजरायल के क़ब्ज़े से बाहर निकलने के लिए फिलिस्तीनियों ने हथियार उठाए। इनमें डेफ भी शामिल था। उसके पिता और चाचा भी 1950 के दशक में इजरायल के ख़िलाफ़ छापामार युद्ध का हिस्सा थे। इजरायली अधिकारियों ने पहली दफा जब डेफ को पकड़ा, तब उसकी उम्र 20 साल थी। उसे आत्मघाती बम विस्फोट में दर्जनों लोगों की मौत का जिम्मेदार ठहराया गया था।

डेफ की काबिलियत बम बनाना ही थी। साथ ही, फिलिस्तीनी विद्रोहियों के साथ मिलकर गाजा के नीचे सुरंगों का जाल भी बनाता था। साल 2005 में गाजा को फिलिस्तीन अथॉरिटी को सौंपकर इजरायल वहां से निकल गया। लेकिन, फिलिस्तीन का गाजा पर क़ब्ज़ा दो साल ही रहा। साल 2005 में डेफ के आतंकी समूह हमास ने तख्तापलट करके गाजा का शासन अपने हाथ में ले लिया और इजरायल के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हिंसक अभियान चलाने लगा।

डेफ को जानने वाले बताते हैं कि दहशतगर्दी की दुनिया में उतरने से पहले वह चेहरे से शांत दिखता था, लेकिन बातों से मक्कारी झलकती थी। वह तब भी इजरायल का मुक़ाबला करने के लिए हिंसा का ही सहारा लेने के हक़ में था। उसका मानना था कि फिलिस्तीन के सभी गुटों को एक होकर इजरायल के ख़िलाफ़ अभियान चलाना चाहिए, ताकि उन्हें यह गुमान ना रहे कि वे जबरन क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर सुकून से रह सकते हैं।

हमास के दूसरे लोगों की तरह डेफ भी 1990 के दशक में हुए ओस्लो समझौते को फिलिस्तीनियों के साथ विश्वासघात मानता है। इसमें बातचीत के जरिए शांति समझौते का वादा किया गया था। लेकिन, हमास और इस्लामिक जिहाद का मानना है कि अगर इस समस्या का टू-स्टेट सॉल्यूशन निकलता है, तो फिलिस्तीनी शरणार्थी उस ऐतिहासिक ज़मीन पर लौटने का अधिकार खो देंगे, जिस पर 1948 में इजरायल ने क़ब्ज़ा कर लिया था। ओस्लो शांति समझौते के विरोध में डेफ ने साल 1996 में एक बम विस्फोट कराया, जिसमें 50 से अधिक इजरायली नागरिक मारे गए।

डेफ का मानना है कि फिलिस्तीनियों को उनका अधिकार इजरायल के खात्मे के बाद ही मिल सकता है। और उसके मुताबिक, इजरायल पर रॉकेटों की बौछार से इसका आगाज भी हो चुका है।

क्या अब अब्राहम एकॉर्ड कुछ वक़्त के लिए पीछे चला गया है?

अब्राहम समझौता 15 सितंबर, 2020 को इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच अरब-इजरायल सामान्यीकरण पर द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मध्यस्थता, 13 अगस्त, 2020 की प्रारंभिक घोषणा, केवल इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात से संबंधित है। 11 सितंबर, 2020 को इज़राइल और बहरीन के बीच एक अनुवर्ती समझौते की घोषणा से पहले। 15 सितंबर, 2020 को, अब्राहम समझौते की पहली पुनरावृत्ति के लिए आधिकारिक हस्ताक्षर समारोह व्हाइट हाउस में ट्रम्प प्रशासन द्वारा आयोजित किया गया था। दोहरे समझौतों के हिस्से के रूप में, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन दोनों ने इज़राइल की संप्रभुता को मान्यता दी, जिससे पूर्ण राजनयिक संबंधों की स्थापना संभव हो सकी।
संयुक्त अरब अमीरात के साथ इज़राइल का प्रारंभिक समझौता 1994 के बाद से किसी अरब देश के साथ इज़राइल द्वारा राजनयिक संबंध स्थापित करने का पहला उदाहरण है, जब इज़राइल-जॉर्डन शांति संधि लागू हुई थी। अब्राहम समझौते पर बहरीन के विदेश मंत्री अब्दुल्लातिफ बिन राशिद अल-ज़यानी ने हस्ताक्षर किए थे। और अमीरात के विदेश मंत्री अब्दुल्ला बिन जायद अल-नाहयान ने इजरायली प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का सामना किया, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प गवाह थे। उनके साथ ट्रम्प के दामाद और वरिष्ठ सलाहकार जेरेड कुशनर और कुशनर के सहायक एवी बर्कोविट्ज़ द्वारा बातचीत की गई थी। संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के लिए अलग-अलग समझौतों के आधिकारिक दीर्घकालिक दस्तावेज़ शीर्षक क्रमशः थे: अब्राहम समझौते शांति समझौते: की संधि संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल राज्य के बीच शांति, राजनयिक संबंध और पूर्ण सामान्यीकरण और अब्राहम समझौते: शांति, सहयोग और रचनात्मक राजनयिक और मैत्रीपूर्ण संबंधों की घोषणा। अब्राहम समझौते का नाम अब्राहमिक धर्मों – विशेष रूप से यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम – की आध्यात्मिक पितृसत्ता के रूप में अब्राहम की भूमिका के बारे में आम धारणा पर आधारित है।

हमास की ओर से यह हमला इस तनाव के मद्देनजर 50 बरसों में सबसे बड़ी घटना है। यह एक बहुत अहम समय पर हुआ है। हाल फिलहाल के वक़्त में ‘अरब अपराइजिंग’ का मुद्दा पीछे चला गया था और ग्लोबल पॉलिटिक्स की सारी प्राथमिकताएं बदल गई थीं। हालांकि अब ऐसा लगता है कि अरब अपराइजिंग का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आएगा। इस मसले के बाद अब्राहम एकॉर्ड के टिकाऊ होने पर भी सवाल उठ रहे हैं। इस घटना ने साबित कर दिया है कि फिलिस्तीन को साथ लिए बगैर अब्राहम एकॉर्ड सस्टेनेबल नहीं है। फिलिस्तीनी राष्ट्रपति अब्बास की प्रतिक्रिया देखें तो उन्होंने हमास को पूरी तरह से सपोर्ट कर दिया है यानी फिलिस्तीनी लीडरशिप एकजुट हो गई है। इससे साफ़ है कि अब्राहम एकॉर्ड अब कुछ वक़्त के लिए नेपथ्य में चला जाएगा।

अमेरिका और ब्रिटेन ने, साथ में नैटो (NATO) से जुड़े ज़्यादातर मुल्कों ने इसे सीधे तौर पर आतंकी हमला कहा और इससे मुक़ाबले के लिए इजरायल को हर तरह की सहायता देने का वचन दिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने भी इस आतंकवादी हमले की निंदा की और संकट की इस घड़ी में इजरायल के साथ खड़े होने की बात कही। दूसरी तरफ, ईरान ने प्रतिक्रिया का दूसरा छोर पकड़ते हुए हमास के हमले को लेकर प्रसन्नता जाहिर की, जबकि अरब लीग ने फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों की बात करते हुए याद दिलाया कि हमास का यह जवाबी हमला काफी समय से जारी इजरायल के एकतरफा हमलों का ही परिणाम है। सऊदी अरब, रूस और चीन ने स्थितियों को बेकाबू न होने देने की अपील की और दोनों पक्षों के संपर्क में होने की बात कही, जबकि यूएई ने नागरिकों के प्रति संवेदना जताई।

ये सारी प्रतिक्रियाएं हमास हमले के पहले दिन और ख़बरें प्रसारित होने के दो-तीन घंटों में आ गई थीं, जब इजरायल की जवाबी कार्रवाई शुरू भी नहीं हुई थी। इससे पता चलता है कि इजरायल-फिलिस्तीन टकराव का बारूद दोबारा भड़क जाने को लेकर कैसी चिंता दुनिया में व्याप्त है। यूक्रेन में जारी लड़ाई ने पहले ही पूरी दुनिया में फूड और फ्यूल इन्फ्लेशन बढ़ा रखा है। इसके समानांतर अगर खाड़ी क्षेत्र में भी तनाव का दायरा बढ़ गया, तो इसका असर सबसे पहले तेल और गैस की और भी ज़्यादा महंगाई में दिखेगा, जिससे कई अर्थव्यवस्थाएं खड़े-खड़े भहरा जाएंगी।

जाहिर है, बाकी दुनिया की तरह भारत की भी सबसे पहली कूटनीतिक चिंता इस टकराव का दायरा समेटने की होगी। यह कि किसी तरह टकराव गाजा पट्टी तक ही सिमटा रहे, फिलिस्तीनी मुख्यभूमि वेस्ट बैंक इससे न जुड़े।

स्थिति यह है कि एक भौगोलिक-राजनीतिक इकाई के नाम पर फिलिस्तीन नाम वाली जो भी इकाई दुनिया में मौजूद है, वह पिछले 16 वर्षों से दो हिस्सों में बंटी हुई है। वेस्ट बैंक के रामल्ला शहर में फिलिस्तीनी अथॉरिटी का दफ्तर है और वहां एक अर्से से नरमपंथी फतह ग्रुप के नेता, 88 साल के महमूद अब्बास का शासन चल रहा है। एक समय था जब फतह ग्रुप के कद्दावर नेता यासिर अराफात (Yasser Arafat) पूरी दुनिया में फिलिस्तीन का चेहरा हुआ करते थे और महमूद अब्बास उन्हें कट्टरपंथी बताते थे। उनकी मृत्यु के बाद महमूद अब्बास ही फतह ग्रुप का चेहरा बन गए।

बाद में इजरायली सरकार से उनके कुछ घोषित और कुछ अघोषित समझौते भी हो गए, लेकिन अवाम में उनका असर जाता रहा और इस्लामी कट्टरपंथियों का जोर बढ़ता चला गया। नतीजा यह कि गाजा पट्टी का इलाक़ा पूरी तरह हमास के हाथ में चला गया, और बीते डेढ़ साल में जितने फौजी ऐक्शन इजरायल को वेस्ट बैंक में करने पड़े हैं, उससे लगता है कि उधर की लपट अगर इधर नहीं पहुंचती तो यह कोई बहुत बड़ा कूटनीतिक चमत्कार ही होगा।

इसमें इजरायल के लिए क्या सबक हैं?

सबसे पहला कि वैश्विक समर्थन के लिए संयम महत्वपूर्ण है। 2008 में मनमोहन सिंह के संयम के चलते भारत को मिली व्यापक वैश्विक सहानुभूति और अमेरिकी दबाव के कारण हाफिज सईद जेल गया। इससे वोटों का नुकसान नहीं हुआ। कांग्रेस और सहयोगी दलों ने 2009 के चुनाव में अधिक बहुमत के साथ जीत हासिल की।

इजरायल को महसूस करना चाहिए कि बदला लेना आकर्षक है और इससे स्थानीय चुनावों में वोट मिल सकते हैं, लेकिन इससे वैश्विक सहानुभूति नहीं मिलेगी। वास्तव में यह शुरुआती भयावहता को कम कर देगा, दोनों पक्षों की विभीषिका बराबर हो जाएगी और यह सिर्फ एक और इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष बनकर रह जाएगा। चूंकि फिलिस्तीनी हमेशा अधिक हताहत होते हैं, इसलिए उन्हें दुनिया भर से अधिक सहानुभूति मिलती है।

यह धारणा भ्रामक है कि इजरायल किसी तरह हमास को ख़त्म कर सकता है। इजरायल ने अतीत में हमास के शीर्ष नेताओं को मार डाला था, लेकिन जल्द ही उनकी जगह और भी अधिक दृढ़ जिहादियों ने ले ली। भारतीय अनुभव से पता चलता है कि पाकिस्तान में शिविरों या व्यक्तियों पर हमला करने से आतंकवाद समाप्त नहीं हो सकता। देशों को ऐसे शत्रुओं के साथ रहना पड़ता है, जिन्हें दबाया नहीं जा सकता। दुश्मन को ख़त्म करने की कोशिश करना बेकार है। ऐसी स्थितियों में संयम से वह लाभ मिल सकता है, जो बदले से नहीं मिल सकता।

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