न्यूनतम समर्थन मूल्य समेत अन्य मांगों को लेकर किसानों का ‘दिल्ली चलो मार्च शुरू हो चुका है। सोमवार को केंद्र सरकार से वार्ता विफल होने के बाद किसानों ने दी गई डेडलाइन क्रॉस होने के बाद मंगलवार को दिल्ली की ओर कूच करना शुरू किया।
इस आंदोलन में 200 से अधिक किसान यूनियन शामिल हैं और इसका आह्वान संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा ने किया है।यह आंदोलन एक बार फिर से पुराने किसान आंदोलन की याद दिलाता है, जिसके तहत किसान दिल्ली की सीमाओं पर एक साल तक जमे रहे थे। इसके बाद केंद्र सरकार को तीन कृषि कानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था, लेकिन इस आंदोलन और उस आंदोलन में एक बड़ा अंतर इन्हें लीड करने वालों का है। 2020 में हुए आंदोलन का नेतृत्व संयुक्त किसान मोर्चा और भारतीय किसान यूनियन ने किया था। इस बार ये दोनों ही संगठन इस आंदोलन से फिलहाल दूर हैं।
आन्दोलन के आगाज़ के साथ दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में रहने लोग फिर से करीब तीन साल पहले वाली अव्यवस्था की कल्पना करके सहमे हुए हैं क्योकि केवल पंजाब ही नहीं, देश के कई राज्यों से फिर से किसानों को दिल्ली कूच करने का आह्वान किया गया है। 16 फरवरी को राष्ट्रव्यापी बंद का भी एलान किया गया है। किसानों का आंदोलन और चुनाव अब एक विश्वव्यापी ट्रेंड बनकर उभरा है। यूरोप के देशों से लेकर अमेरिका तक में किसानों के आंदोलन और चुनाव का सीधा तालमेल देखा जा रहा है। ग्लोबलाइजेशन के युग में भारत भी इससे अछूता नहीं है।
गौरतलब है कि 20-21 के किसान आंदोलन को भी मोदी सरकार को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के मुहाने पर आकर किसी तरह से समाप्त करवाने को मजबूर होना पड़ा था। अप्रैल-मई में देश आम चुनावों के लिए तैयार हो रहा है और यह केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गया है।
किसान संगठन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। फिलहाल केंद्र की मोदी सरकार चुनावी साल में इस संकट से उबरने के लिए दो मोर्चे पर काम कर रही है। एक तो केंद्र के वरिष्ठ मंत्रियों को तमाम किसान संगठनों से बातचीत में लगाया है क्योंकि सरकार मानकर चल रही है कि किसी भी समस्या का हल आखिरकार बातचीत से ही निकाला जा सकता है।
तथ्य ये है कि किसान संगठनों को भी पता है कि लोकसभा चुनाव सामने है और मोदी सरकार पर प्रेशर बनाने के लिए इससे बेहतर मौका हो नहीं हो सकता। उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार के सामने क्या मजबूरी थी, उन्हें इसका अंदाजा लग चुका है।
बताया जाता है कि दिल्ली कूच में जिन राज्यों के किसान शामिल होने वाले हैं, उनमें पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान संगठन तो शामिल हैं ही, इस बार कर्नाटक से भी किसानों के दिल्ली पहुंचने की कोशिशें देखी जा रही हैं। मजेदार बात है कि ये किसान अयोध्या में राम लला के दर्शन के बहाने ट्रेनों के माध्यम से कूच कर रहे थे, लेकिन राज्य सरकार को भनक लग गई और उन्हें भोपाल में ही उतार लिया गया। एमपी में बीजेपी की सरकार की इस कार्रवाई की प्रतिक्रिया सीधे कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की ओर से देखने को मिली।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने किसानों को ट्रेनों से उतारे जाने की घटना को निंदनीय बताते हुए कहा कि उनके आंदोलन को दबाया नहीं जा सकता। वहीं दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार में मंत्री गोपाल राय ने भी मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की।उन्होंने कहा है कि सरकार किसानों के साथ जो बर्ताव कर रही है, वैसा अंग्रेजों ने भी नहीं किया। उनके मुताबिक किसानों की मांगें सही हैं और चुनाव आ चुके हैं और सरकार ने वादा करके उन्हें धोखा दिया है। किसान मजबूरी में यह कदम उठा रहे हैं।
विरोधी दलों की सरकारों की इन प्रतिक्रियाओं को देखने के बाद मोदी सरकार को महसूस हो रहा है कि किसान आंदोलन तो एक बहाना है। यह सब कुछ चुनाव से पहले सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाने की तैयारी की गई है।केंद्र सरकार को लगता है कि पिछली बार पंजाब की कांग्रेस सरकार ने किसानों को दिल्ली में डेरा डालने का मौका दिया था, वही अब मौजूदा राज्य सरकार कर रही है… ताकि चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी पर दबाव बनाया जा सके।
मोदी सरकार को आश्चर्य है कि देश के आम किसान उसके खिलाफ कैसे हो सकते हैं क्योंकि, उसे लगता है कि वह तो छोटे और सीमांत किसानों के खातों में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत हर साल 6,000 रुपए ट्रांसफर कर रही है और जिसकी अब अगले 5 साल के लिए गारंटी दी जा चुकी है। इस योजना के 11 करोड़ से ज्यादा लाभार्थियों को अब तक 2.80 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए जा चुके हैं।मोदी सरकार को यह भी लगता है कि गरीब, महिला, युवा और किसान पर ही तो उसने फोकस रखा है फिर किसान इस तरह से किसानों के सड़कों पर उतरने के पीछे जरूर राजनीति है।
चूँकि लोकसभा चुनाव अब बामुश्किल दो महीने दूर है। लिहाजा सियासी तड़का भी लग रहा है। देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस ने गारंटी कार्ड खेल दिया है- सत्ता में आए तो सबसे सबसे एमएसपी को कानूनी गारंटी देने का कानून लाएंगे। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को किसान आंदोलन में सियासी लाभ का मौका दिख रहा तो मोदी सरकार बातचीत के जरिए किसानों को मनाने और बात न बनने पर उन्हें दिल्ली पहुंचने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। किसान संगठनों की अपनी मांगें हैं लेकिन आंदोलन की टाइमिंग सवाल खड़े कर रही। चुनाव से पहले ही आंदोलन क्यों? क्या टाइमिंग की वजह से आंदोलन से सियासत की बू नहीं आ रही? वैसे जब भीड़तंत्र के आगे सरकारें सरेंडर करने लगेंगी तो आंदोलन के नाम पर अराजकता से सत्ता को झुकाने की कोशिशें तो होंगी ही।
गौरतलब है कि किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह और महान कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को ‘भारत रत्न से नवाजने को किसान समुदाय को साधने की कोशिश के रूप में ही देखा गया। वही किसान प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता वालीं 4 जातियों में से एक हैं। मोदी सरकार को डर है कि चुनाव से पहले दिल्ली में किसान आंदोलन उसके किए कराए पर पानी फेर सकता है और पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है।
आंदोलनकारी किसानों की मांगों में भी इस बार बढोतरी हो गई है जैसे कि एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए और इसके लिए कानून बनाया जाए। स्वामीनाथन कमिटी की सिफारिशों को लागू किया जाए। किसानों और कृषि मजदूरों को पेंशन दी जाए। विश्व व्यापार संगठन से भारत निकल जाए। 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को फिर से लागू किया जाए। पिछली बार आंदोलन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने को लेकर था। संसद से पास होने के बावजूद सरकार ने कृषि कानूनों को लागू करने को टाल दिया था फिर भी किसान आंदोलन पर अड़े रहे।
सरकार किसानों की पिछली बार की ज्यादतियों को भूली नहीं है । उस समय देश की राजधानी को आंदोलन के नाम पर तकरीबन एक साल तक बंधक बनाकर रखा गया था । सड़कों पर किसानों ने तंबू कनात तो टांग रखे ही थे, कुछ जगहों पर पक्के निर्माण तक कर दिए। स्थानीय लोगों को असुविधा होती रही। आधे घंटे की दूरी तय करने में तीन-तीन घंटे झेलने पड़ रहे थे। स्कूली बच्चों को दिक्कतें, आम लोगों को दिक्कतें, बीमार लोगों को दिक्कतें। हालत ये थी कि मेडिकल इमर्जेंसी की स्थिति में मरीज की जान जाने का जोखिम कई गुना बढ़ चुका था क्योंकि किसान सड़कें घेरकर आंदोलन कर रहे थे।हत्या, रेप, हिंसा,किसान आंदोलन के दौरान क्या-क्या नहीं हुआ। आंदोलन के नाम पर अराजकता का नंगा नाच दिखा।
अक्टूबर 2021 में सिंघु बॉर्डर पर लखबीर सिंह नाम के शख्स की उस बेरहमी से हत्या की गई कि आईएसआईएस भी शर्मा जाए। पंजाब के तरनतारन के उस दलित युवक को मारकर शव को उल्टा लटका दिया गया था। मई 2021 में टिकरी बॉर्डर पर पश्चिम बंगाल से आई एक 25 वर्ष की युवती से कथित तौर पर रेप हुआ। बाद में पीडि़त की मौत हो गई। पीडि़त के पिता इंसाफ की गुहार लगाते रहे। आंदोलन के दौरान दिल्ली की सड़कों पर अराजकता का कैसा नंगा नाच हुआ उसका अंदाजा 26 जनवरी 2021 को लाल किला पर कथित आंदोलनकारियों की दंगाई हरकतों से समझा जा सकता है। ट्रैक्टर मार्च के नाम पर देश की राजधानी को गणतंत्र दिवस पर पंगु बनाने की कोशिश हुई। आंदोलन के नाम पर आगजनी, तोडफ़ोड़ और हिंसा की गई। सैकड़ों पुलिसकर्मी जख्मी हुए।
इसीलिए सरकार इस बार ऐसे आन्दोलन को टालने के लिए शुरुआत से सक्रिय है। दूसरी तरफ दिल्ली की सीमाओं पर पिछली बार जैसी परिस्थितियां पैदा न होने पाएं, उसके लिए तमाम एहतियाती उपाय किए गए हैं। पड़ोसी राज्यों को दिल्ली से जोडऩे वाली तमाम सीमाओं, जैसे कि सिंघू, शंभू, टिकड़ी और गाजीपुर बॉर्डरों पर जोरदार बैरिकेडिंग की गई है। तंबू गाडऩे की इजाजत नहीं दी जा रही है।पिछली बार की गलतियों का समाधान खोजने की कोशिशें की गई हैं। दिल्ली में एक महीने के लिए धारा 144 लागू कर दी गई है। हरियाणा सरकार ने भी इंटरनेट पर पाबंदी लगा रखी है। दिल्ली कूच करने की तैयारी में लगे किसान संगठनों पर पुख्ता नजर रखी जा रही है।
-अशोक भाटिया