(उमेश कुमार साहू – विभूति फीचर्स)
जीवन में हर पल उल्लास-उमंग का संचार होता रहे, इसलिए हमारी संस्कृति में अनेक प्रकार के प्रावधान बनाए गए हैं। ऋतुक्रम में शीतकाल ठिठुरन में बीतता है और जैसे ही बसंत का आगमन होता है, प्रकृति में सर्वत्र उल्लास छा जाता है।
निष्क्रियता सक्रियता में परिवर्तित हो जाती है। बसंत से होलिका पर्व तक का समय प्राय: चालीस दिन की अवधि का होता है और यह अवधि प्रकृति के परिपूर्ण यौवन-उल्लसित प्राणवान् उमंगों की पे्ररणाओं से भरी होती है। चारों ओर कुछ विलक्षण मादकता, पवित्रता-सात्विकता अनुभव होने लगती है।
होलिका पर्व न केवल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बल्कि शरीर विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान एवं वर्तमान के भौतिक विज्ञान की कसौटी पर ऐसा खरा उतरता है कि कभी-कभी लगता है हमारे ऋषि-मनीषियों ने कितना सोच-समझकर यह निर्धारण किया होगा। फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि बीच में रख दो दिनों तक मनाया जाने वाला उल्लास भरा पर्व है होलिका दहन व धुलैंडी। पर अभी भी भारत के अधिकांश क्षेत्रों में यह बसंत पंचमी से मनाया जाने लगता है एवं रंगपंचमी तक चलता है। विविधता में एकता का दर्शन कराने वाली हमारी संस्कृति के रंग निराले हैं। ब्रज में, राजस्थान में, मालवा में, बुंदेलखंड में, मिथिला में हर जगह होली उल्लास भरे पर्व के रूप में मनाई जाती है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। अन्न देवता पहले यज्ञीय ऊर्जा से संस्कारित हों, फिर समाज को यह अन्न समर्पित हो, इसीलिए जगह-जगह होलिका दहन यज्ञ का प्रचलन था। आज भी धरती के प्रदूषण एवं बहुराष्ट्रीयकरण के कारण ढेर सारे अनाज के होते हुये भी, असमान वितरण के चलते आत्महत्या करते किसानों के बाद भी इस पर्व की गरिमा यथावत् है।
यह पर्व एवं इसमें निहित दर्शन की स्थापना ही इन समस्याओं से इस कृषि प्रधान देश को मुक्ति दिला पाएगी। होली पर्व के पीछे क्या पौराणिक मान्यताएं हैं, यदि इन्हें अलग रख दें तो इसके साथ जुड़ी विशेषताएं इसे समता का, पारस्परिक सद्भाव के विस्तार का पर्व स्थापित करती है। यही एकमात्र ऐसा त्यौहार है, जिसमें हिन्दू ही नहीं, सभी संप्रदायों के व्यक्ति, ऊंच-नीच का भेद छोड़कर एक साथ मिलते हैं। हम सबका जीवन इन रंगों की तरह वैविध्यपूर्ण गुणों से भर जाए, व्यक्ति में ये गुण समा जाएं, इस भाव से इसे मनाया जाता है।
छोटे से छोटा व्यक्ति भी उच्च पद पर आसीन अधिकारी वर्ग के साथ पारस्परिक सौहार्द के साथ होली खेल लेता है। इसीलिए इस पर्व के साथ प्रहलाद के कथानक से जुड़े नृसिंह भगवान का पूजन तो किया ही जाता है, मातृभूमि रज-त्रिधा समता देवी का पूजन एवं क्षमावाणी के माध्यम से पारस्परिक व्यवहार में शालीनता के समावेश जैसी विशिष्टता भी जुड़ी हुई हैं। यह एक विडंबना ही है कि सांस्कृतिक प्रदूषण की आंधी में आज इसका स्वरूप फूहड़ होकर रह गया है। दिव्य प्रेरणाओं से भरा यह पर्व गंदे हंसी-मजाक से लेकर अश्लील प्रदर्शन एवं ओछी हरकतों का परिचायक बनता जा रहा है। होली जलाई जाती है, तो उसके साथ सारा कूड़ा-करकट, इर्ष्या-द्वेष, घृणा-कामुकता के बुरे भाव आदि भी जला दिए जाते हैं, परंतु आज इससे विपरीत ही हो रहा है। अनेक बार इसी पर्व पर दंगे उठ खड़े होते हैं। समाज में पारस्परिक सामंजस्य-समरसता स्थापित करने हेतु स्थापित यह पर्व ऐसी बिगड़ी हुई स्थिति तक आ पहुंचेगा, यह कभी सोचा भी नहीं गया था।
होली जले तो अश्लीलता की, अश्लील पोस्टरों की, उस कूड़ा-करकट की जो पिछले कई दिनों से हमारे अंदर-बाहर जमा होता है। यदि यह न होकर मात्र कुछ टन लकड़ी आग में डाल दी जाए, तो यह पर्यावरण प्रदूषण में ही सहायक होगा।
अब राष्ट्र एवं विश्व में खून की नहीं, स्नेह-सद्भावना के विस्तार की, एक-दूसरे को आगे बढ़ाने की होली खेली जानी चाहिए।
यदि इस रूप में यह पर्व मनाया जा सका तभी हम अपनी संस्कृति व भावी पीढ़ी के साथ उचित न्याय कर पाएंगे। (विभूति फीचर्स)