Monday, February 24, 2025

हमारी रात्रिचर्या कैसी हो ?

-सुभाष चन्द्र मिश्र

संध्या कालोचित आचरण से लेकर रात्रिकाल में करणीय सर्वकर्म यथा रात्रिभोजन, शयन, निद्रा एवं स्वप्न, गर्भाधान, रजस्वला चर्या तथा ब्रह्मचर्यादि का पालन, ये सभी स्वस्थ वृत्त संबंधी रात्रिचर्या के प्रमुख अंग हैं। बुद्धिमान व्यक्ति सायंकाल भोजन, मैथुन, नींद, पढऩा और मार्गगमन इन पांच कार्यों को त्याग दें क्योंकि इस समय भोजन से व्याधि, मैथुन से गर्भ में विकार, नींद से दरिद्रता, पढऩे से आयु की हानि एवं मार्ग गमन से भय होता है।

रात्रि के पहले और अन्तिम प्रहरों को वेदाभ्यास में नियोजित करें, शेष दो प्रहरों से छह घंटे सोने वाला ब्रह्मवर्चस्व की प्राप्ति करता है। रात्रि के प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। भोजन दिन की अपेक्षा कुछ कम खाना चाहिए। देर से पचने वाले गरिष्ठ पदार्थ न खाये जाएं तो स्वास्थ्य के लिए ठीक है।

ऋषिगण बड़ा स्पष्ट कह गये हैं कि रात्रि के शुरूआती क्षणों में संभव हो तो सूर्यास्त से पहले या बाद प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लें। यह विज्ञानसम्मत भी है। भोजन नलिका को पचाने हेतु पर्याप्त समय भी मिल जाता है। आज जीवन शैली आमूल चूल विकृत हो चुकी है।

लोग प्रात: देर से उठकर ब्रेकफास्ट लेते हैं एवं दोपहर का भोजन प्राय: दो तीन बजे करते हैं। इसी कारण एवं आज के इलेक्ट्रानिक युग में देर तक टी. वी. देखते हुए 11-12 बजे भोजन करने के कारण सारी शारीरिक मशीन ही गड़बड़ा गई है।

जैन धर्म में सूर्यास्त के पूर्व भोजन लेने का प्रावधान है ताकि संधिकाल के समय उत्पात मचाने वाले जीवाणु, विषाणु, कीटाणु भोजन के साथ अंदर न चले जायें। कितना सटीक विवेचन रहा है ऋषिगणों का कि संधिकाल को तो विशुद्ध साधनात्मक उपचारों में नियोजित कर लें, हो सके तो उसके पूर्व या बाद भोजन ले लें।

छ: घंटे की गाढ़ी योगनिद्रा पर्याप्त है यदि दिनभर का क्रम श्रम से भरा व द्वंद्वों से मुक्त है। अभ्यास किया जाए तो संधिकाल में थोड़ा प्राणायाम-ध्यान का क्रम ठीक बैठ जाने से इस निद्रा को रोज का एक क्रम बनाया जा सकता है।

आज टेलीविजन नेटवर्क जो हमारे अंत: कक्षों तक पहुंच गया है, से दो-दो हाथ होने के बाद किसी को योगनिद्रा तो क्या आएगी, भोगनिद्रा ही आएगी। सप्ताह में एक दिन मनोरंजन का रखा जा सकता है किंतु रात्रिचर्या अभ्यास का इसी क्रम से किया जाना चाहिए जैसा कि ऋषिगणों का निर्देश है।

आयुर्वेद के विद्वान यह भी कहते हैं कि भोजन करने व सोने के मध्य दो-तीन घंटों का अंतर होना चाहिए। भोजन के बाद व सोने से पूर्व  एक-एक घंटे के अंतर में कम से कम दो या तीन बार जल लेना चाहिए। इससे भोजन को पचाने में मदद मिलती है, रात्रि में अपच होने की संभावना भी नहीं रहती, निद्रा भी ठीक आती है एवं प्रात: शौच भी साफ हो जाता है।

भोजन के तुरंत पश्चात सोने से प्राय: शरीर में थकावट रहती है। स्नान तथा व्यायाम आदि करने का मन भी नहीं होता। ऋषिगण यह भी कहते हैं कि रात्रि में सोने से पूर्व पैरों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए। यदि नींद आने में थोड़ी भी कठिनाई हो तो सोने से पहले पैरों के तलुओं में गौघृत या सरसों के तेल की मालिश भी की जा सकती है।

इससे नींद ठीक आती है और किसी भी प्रकार के जुकाम-खांसी आदि की आशंका नहीं रहती। महाभारत में वेदव्यास जी कहते हैं:-
नक्तंचर्या दिवास्वप्न मालस्यंपैशुनंमदम।
अतियोगमयोमंच श्रेयसोऽर्थी परित्यजेत्।।
अर्थात्:- अपने हित की इच्छा रखने वाले को रात में जागरण, दिन में निंद्रा, आलस्य, चुगलखोरी, नशा करना तथा आहार-विहार-निद्रा इत्यादि विहित कर्मों का अतियोग तथा आयोग-इनका वर्जन करना चाहिए।

निद्रा की परिभाषा क्या है? योगसूत्र बड़ी सुंदर व्याख्या करता है।
”अभावप्रत्ययाव लंबना वृत्तिनिद्रा”। अर्थात् पदार्थ मात्र के अभाव का अनुभव जिसका आधार है, ऐसी जो चित्त की वृत्ति है, वही निद्रा है। काव्य मीमांसा में कवि इसीलिए कहता है-‘अच्छी गाढ़ी नींद शरीर के लिए परम आरोग्यप्रद होती है।’
चंड कौशिक के कथनानुसार
‘निद्रा चित्त में प्रसन्नता, शरीर में लाघव (हल्कापन), अंग प्रत्यंगों में उमंग, बुद्धि में विशेष प्रकार की प्रतिभा उत्पन्न करती है। दोषों का नाश करती है, धातुसाम्य (नीरोगता) स्थापित करती है और योगविशेष से प्राप्त होने वाला आनंद भी प्रदान करती है परन्तु ऐसा कौन-सा व्यक्ति होता है जिसे ऐसी निद्रा सुलभ हो सकती है।

उत्तर हमें चरक से मिलता है -विद्याध्ययन में रत, विषयोपभोग से निस्पृह तथा संतोष तृप्त मनुष्य की निद्रा अपने उचित काल का अतिक्रमण नहीं करती। पद्म पुराण कहता है कि जितेन्द्रिय मनुष्य समय पर ही सोता है, सुख से सोता है और समय पर जागता है।
रात्रि में सोने से पूर्व दांतों को साफ कर लेना चाहिए। पश्चिम में भी प्राय: सभी इस नियम का पालन करते हैं। इससे मुंह में ताजगी रहती है और नींद ठीक से आती है।

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