Friday, October 18, 2024

तकनीक के ढिंढोरे के बीच भीषण रेल हादसे कब तक?

बेशक बालासोर रेल दुर्घटना देश क्या दुनिया के भीषणतम हादसों में एक है। इतना ही नहीं और याद भी नहीं कि देश में कभी एक साथ तीन रेलें इस तरह टकराई हों जिसमें दो सवारी गाड़ी हों? दुर्घटना से जो एक सच सामने आया है वो बेहद दुखद और चौंकाने वाला है। रिजर्व बोगियों के अलावा बहुत सी मौतें जनरल बोगियों में सवारों की भी हुईं हैं जिनकी पहचान कैसे हो पाएगी? उससे भी बड़ी सच्चाई ये कि देश की अब तक सबसे ज्यादा रेल दुर्घटनाएं स्टेशनों पर पहुंचने से थोड़ा पहले ही हुईं, जिसका मतलब जब अप और डाउन दोनों ट्रैक किसी स्टेशन पर पहुंचने से पहले यात्री सुविधाओं की दृष्टि से कई लूप ट्रैक में विभाजित हो यात्रियों खातिर प्लेटफॉर्म पर गाड़ियों को पहुंचाते हैं, यहां आगे जा रही या पीछे से आ रही ट्रेनों की स्थिति और निगरानी की जरा सी चूक हादसे में बदल जाती है। यकीनन ट्रेनों के परिचालन के लिए नित नई उन्नत और नवीनतम तकनीक विकसित होती जा रही हैं, बावजूद इसके हादसे उतने ही गहरे जख्म भी छोड़ जाते हैं।

दरअसल ये हादसा बहानागा रेलवे स्टेशन के पास शालीमार-चेन्नई कोरोमंडल एक्सप्रेस (12841) और सर एम.विश्वेश्वरैया टर्मिनल-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस (12864) तथा मालगाड़ी के एक-दूसरे से टकराने से हुआ। कोरोमंडल एक्सप्रेस डिरेल होकर खड़ी मालगाड़ी से टकराई, डिब्बे गिरे और लोग निकल जान बचाने इधर-उधर भागने लगे। ठीक उसी समय दूसरे ट्रैक पर यशवंतपुर हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस (12864) आ गई और पहले से गिरी ट्रेनों से टकरा गई। इसके चलते हादसे का रूप भयंकर वीभत्स और दिल दहला देने वाला हो गया। जान बचाकर भागते कई लोग भी शिकार हो गए।

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सुबह जब ड्रोन से तस्वीरें मिलने शुरू हुईं तो रोंगटे खड़े कर देने वाले दर्दनाक मंजरों ने और डरा दिया। जबकि बोगियों के अन्दर की तस्वीरें बेहद दर्दनाक थीं। किसी का सिर धड़ से अलग था, किसी के हाथ-पैर और क्षत-विक्षत शरीर। मालगाड़ी के डिब्बे के ऊपर सवारी गाड़ियों के डिब्बे जिग-जैग पोजीशन में एक-दूसरे के ऊपर 50-55 फीट तक जा चढ़े। कई डिब्बे सैकड़ों मीटर दूर तक जा फिकाए।

दोनों ही ट्रेन अपनी पूरी क्षमता से भरी थीं यानी 1750 यात्रियों को लेकर कुल 3500 यात्रियों की क्षमता के साथ अलग-अलग लेकिन पूरी रफ्तार से दौड़ रहीं थीं। एक की रफ्तार 120 किमी तो दूसरी की 125 किमी। इतनी रफ्तार में टकराने से क्या हुआ और होता है, सामने दिख रहा है। पिछले 20 वर्षों में यह सबसे बड़ा हादसा है।

बीते बरस की ही बात है, जीरो रेल एक्सीडेंट मिशन में ऑटो ब्रेक सिस्टम पर तेजी से काम की खूब बातें हुईं। ट्रेन प्रोटेक्शन एण्ड वार्निंग यानी टीपीडब्ल्यूएस तकनीक का ढिंढोरा पिटा। वो प्रणाली बताई गई जिसमें गलती की गुंजाइश नहीं। कोई ट्रेन रेड सिग्नल जंप भी कर जाए तो यह वार्निंग प्रणाली उसे रोक देगी। डिवाइस लोको पायलट के उन क्रियाकलापों को भी मॉनीटर करेगी जिसमें ब्रेक, हार्न, थ्रोटल हैंडल शामिल हैं। यदि कोई लोको पायलट प्रतिक्रिया नहीं देगा या झपकी लग जाए तो ये सिस्टम खुद तुरंत ऐक्टिवेट होकर ब्रेक लगाएगा। यदि ट्रेनों की रफ्तार तय स्पीड से ज्यादा हुई और रेड सिग्नल दिखा तो भी सिस्टम लोको पायलट का रिस्पांस न मिलने पर तुरंत खुद सक्रिय होगा तथा धीरे-धीरे ब्रेक लगाकर इंजन बंद कर देगा।

इस हादसे पर इससे भी बड़ी विडंबना या मजाक ये कि महज एक दिन पहले ही रेल मंत्रालय ने ट्रेन सुरक्षा पर बड़ा चिंतन शिविर किया। नई तकनीकों पर जोरदार पक्ष रखा। रेल के सफर को सुरक्षित और आरामदेह बनाने पर फोकस किया और दावा कि कवच तकनीक से लैस ट्रेनों का आपस में एक्सीडेंट हो ही नहीं सकता। यहां तक कि यदि ये दो ट्रेन आमने-सामने आ भी जाएं तो यह तकनीक उन्हें खुद ही पीछे की तरफ धकेलने लगेगी मतलब ट्रेन का आगे बढ़ना रूक जाएगा।दुर्भाग्य देखिए कि कवच की बात सामने आने के चंद घण्टों के भीतर ही यह बड़ा हादसा हो गया।

रेलवे बोर्ड से पूरे देश में 34000 किलोमीटर रेल ट्रैक पर कवच सिस्टम लगाने की मंजूरी मिली है। साल 2024 तक सबसे व्यस्त रेल ट्रैक पर इसे लगाना है। इस कवच की तकनीक को रिसर्च डिजाइन एंड स्टेंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन यानी एनडीए की मदद से पूरे देश के रेलवे ट्रैक पर लगाया जाना है। हालांकि रेल मंत्री के राज्यसभा में दिए जवाब के मुताबिक यह तकनीक दक्षिण मध्य रेलवे के 1455 रूट पर लग चुकी है। इस पर वर्ष 2021-22 में 133 करोड़ रुपये जबकि 2022-2023 में 272.30 करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य है। रेलवे, ट्रेन में टीपीडब्ल्यूएस सिस्टम भी लागू कर रहा है जो ट्रेन सुरक्षा और चेतावनी प्रणाली का वो सिस्टम है जिससे एक्सीडेंट कम हो सकते हैं। इसमें हर रेलवे सिग्नल इंजन के कैब में लगी स्क्रीन पर दिखाई देगा। यह घने कोहरे, बारिश या किसी अन्य कारण से खराब मौसम के बावजूद कोई भी सिग्नल मिस नहीं करेगा।ट्रेन की सही गति भी मालूम होती रहेगी ताकि खराब मौसम में नियंत्रित किया जा सके।

जब देश में इन दिनों वन्देभारत ट्रेन शुभारंभ की चमकदार तस्वीरें सामने होती हैं, बुलेट ट्रेन की बातें गुदगुदाती हैं तो इसी बीच ऐसी दुर्घटनाओं का काला सच तमाचा बेहद सवालिया होता है। जाहिर है लोग सवाल तो पूछेंगे कि क्या देश में केवल लक्जरी ट्रेनों के संचालन की प्राथमिकता है और आम लोगों की रेलगाड़ियां और पटरी पर कोई ध्यान नहीं? भले ही यह राजनीतिक बहस का विषय बने लेकिन देश में आम सवारी गाड़ियों की हालत ठीक नहीं है। देश के बहुसंख्यक आम यात्रियों की सुविधाओं पर भी ध्यान जरूरी है।

सबसे कमाऊ रेलवे जोन में दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे का पूरा ध्यान केवल कोयला ढुलाई पर है। यात्री सेवा में यह जोन सबसे फिसड्डी साबित होता जा रहा है। देश भर में जाने वाली शायद ही कोई गाड़ी यहां अपने सही पर चलती पाती हो? कम से कम बिलासपुर-कटनी रेल मार्ग पर तो ट्रेनों की लेट-लतीफी ने हदें पार कर दीं। तीसरी लाइन का ज्यादातर हिस्सा चालू हो जाने के बाद यात्री सुविधाओं में इजाफे पर तमाम दावे ढिंढोरे बेमानी निकले। इस रूट पर भारत में सबसे ज्यादा यात्री ट्रेनों की लेटलतीफी है। जरूरी और लंबी दूरी की गाड़ियों का 3-4 घण्टे की देरी से चलना एकदम आम है। 8 से 10 घण्टे भी लेट चले तो भी अब हैरानी नहीं होगी। पहले दिन आने वाली ट्रेन दूसरे दिन पहुंचे तो भी लोग हैरान नहीं होते बल्कि नीयति मानते हैं। नई यात्री गाड़ियां तो जैसे सपना हो गया है। जनप्रतिनिधि भी खोखले वायदों का झुनझुना पकड़ा कर लजाते तक नहीं। कोयला गाड़ियां जरूर हर रोज बढ़ जाती हैं। काला सच यह कि कोयला खदानों को देश के लिए तो वरदान हैं, लेकिन यहां के लोग अपने लिए अभिशाप मानने लगे हैं। इस रूट पर कोयला गाड़ियों को सर्वोच्च प्राथमिकता है जिसके लिए सुपरफास्ट ट्रेनें तक लंबे वक्त तक किसी भी आउटर पर खड़ी कर दी जाती हैं। इतना ही नहीं, कोयले के खातिर मेन प्लेटफॉर्म तक कोल साइडिंग में तब्दील हो जाते हैं। बिलासपुर रेल जोन का अगला स्टेशन सबूत है। अमलाई का मुख्य प्लेटफार्म कोल साइडिंग की बलि चढ़ गया है। जबरदस्त जनविरोधी हुआ तीन दिनों के लिए प्रशासन ने कोल साइडिंग बन्द भी की। लेकिन बिजली संयंत्र को कोयले की सप्लाई की दुहाई भरी स्वप्रेरणा से लिखी चिठ्ठी के आगे जनहित बौना साबित हुआ। भारी प्रदूषण और लोक स्वास्थ्य पर मंडराते खतरे से इतर कोयला परिवहन अव्वल साबित हुआ।

इसी सेक्शन में डेढ़ महीने पहले 19 अप्रेल को दो मालगाड़ियों की भीषण टक्कर सिंहपुर स्टेशन पर हुई। घटना होम सिग्नल के ओवशूट के चलते हुई। ट्रैक पर खड़ी मालगाड़ी से पीछे से आ रही मालगाड़ी से टकरा गई जिस कारण दूसरी लाइन पर आ रही मालगाड़ी भी टकरा गई। हादसे वाली दोनों मालगाड़ी के डिब्बे तीसरी मालगाड़ी पर जा गिरे और इंजन में आग लग गई। इसमें एक लोको पायलट की मौके पर मौत हो गई और 5 बुरी तरह से घायल हुए। एक गुड्स ट्रेन का लोको पायलट 15 घण्टों से लगातार ड्यूटी पर था, कैसे था इस पर सब चुप्पी साधे रहे। चार रेल इंजन क्षतिग्रस्त हुए और 9 कोयले से लदी बोगियां उतर गईँ। अरबों का नुकसान हुआ।

फिलहाल बालासोर से 22 किमी दूर घनी आबादी वाले इलाके के पास हुए इस हादसे ने ट्रेन और उससे ज्यादा यात्रियों की सुरक्षा को लेकर तमाम सवालों की झड़ी लगा ही दी है। रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव यहां के कलेक्टर भी रह चुके हैं। दुर्घटना की शिकार कोरोमंडल एक्सप्रेस में कोई टक्कर रोधी यानी एंटी-कोलिजन उपकरण नहीं होने की बातें भी सामने आ रही हैं। जिससे एक ही ट्रैक पर चलने वाली ट्रेनें एक निश्चित दूरी पर रुक जाती हैं। हालांकि कारण पता लगने के दावे जिम्मेदार कर रहे हैं लेकिन फिर भी सवाल कई हैं और आगे भी रहेंगे। लेकिन यह सच है कि शाम को जब कुछ लोग सोने की तैयारी में थे तो कुछ रात का खाना खा रहे थे। कइयों के हाथों में निवाला भी था जिसे पकड़े-पकड़े वो खुद मौत का निवाला बन गए। इंसानियत की मिसाल बचाव दल व स्थानीय लोगों ने जो दिखाई वो काबिले तारीफ है। काश आम भारतीयों की पहले जैसे समय पर चलकर सुरक्षित पहुंचाने वाली ट्रेनें फिर मिल पाती!

आम लोगों के लिए भी ट्रेनों, सुरक्षित और आरामदेह सफर के लिए भी कुछ सोचा जाता? राहत की बात यह है कि प्रधानमंत्री खुद वहां पहुंचे हैं इसलिए पूरे देश के रेल यात्रियों में उम्मीद की किरण बाकी है।

-ऋतुपर्ण दवे

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