Monday, December 23, 2024

भारतीय फिल्में हमेशा समाज के मूड को ही दर्शाती हैं : जावेद अख्तर

नई दिल्ली। दिग्गज लेखक और गीतकार जावेद अख्तर ने कहा है कि भारतीय फिल्में समाज की भावनाओं को प्रतिबिंबित करती रही हैं।

जावेद अख्तर ने गुरुवार शाम अपनी किताब ‘टॉकिंग लाइफ: जावेद अख्तर इन कन्वर्सेशन विद नसरीन मुन्नी कबीर’ के लॉन्च पर कहा, ”भारतीय फिल्मों ने हमेशा वही दिखाया और दर्शाया है जो हमारे समाज में हो रहा है। सिनेमा समाज से आता है। सपनों के साथ भी ऐसा ही है। चेतन और अवचेतन मन में जो है वही सपनों में भी झलकता है।”

अख्तर ने कहा कि 1930-1940 के दशक में, जब केएल सहगल ने देवदास की भूमिका निभाई, तो ‘खांसी’ (कफ) एक फैशन बन गयी। उन्होंने कहा, “सहगल के कारण सेल्फ-डिस्ट्रक्शन एक गुण बन गया था। हालांकि, जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, यह सेल्फ-डिस्ट्रक्शन गुण भी गायब हो गया।”

अख्तर ने आगे कहा, ”जब नेहरूवादी युग आया, तो सभी ने सोचा कि जल्द ही चीजें ठीक हो जाएंगी। लेकिन जब लोगों को लगा कि बहुत कुछ नहीं बदल रहा है, तो सिनेमा ने शम्मी कपूर के रूप में समाज को ‘रिबेल स्टार’ दे दिया। किससे लड़ रहा था ये ‘रिबेल स्टार’?, वह अपने माता-पिता और समाज के खिलाफ लड़ रहा था। ज्यादातर मामलों में ये ‘रिबेल स्टार’ ललिता पवार से ही लड़ रहा था, तो, यहां का गुण सामंती व्यवस्था का निषेध था।”

उन्होंने कहा कि इस जनरेशन की फिल्मों में खलनायक हमेशा मिल मालिक या जमींदार होता था।

“1970 के दशक में हमने अमिताभ बच्चन के रूप में ‘एंग्री यंग मैन’ का उदय देखा। उन्होंने कानून अपने हाथ में ले लिया। वह कानून या पुलिस के कदम उठाने का इंतजार नहीं करते, बल्कि स्वयं और मौके पर ही फैसला करते हैं।”

उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, ‘खलनायक’ का गुण और सार इसके साथ खत्म हो गया। इस पूंजीवादी बाजार में, ‘खलनायक’ ढूंढना बहुत मुश्किल है। अमीर ‘खानदानी’ (अच्छे परिवार से) हैं, तो वे ‘खलनायक’ कैसे हो सकते हैं?”

अपने अन्य पसंदीदा विषय, 2012 के कॉपीराइट संशोधन विधेयक के बारे में बात करते हुए, अनुभवी गीतकार ने दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली की प्रशंसा की।

”2012 में तत्कालीन सरकार और विपक्ष कई मुद्दों पर आमने-सामने थे। विपक्ष का नेतृत्व अरुण जेटली कर रहे थे।”

“मुझे अभी भी उनके शब्द याद हैं। उन्होंने कहा, ‘जावेद साहब, मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि यह विधेयक पारित हो जाए।’ कॉपीराइट संशोधन बिल पर सुषमा स्वराज के बयानों को देखें तो ऐसा नहीं लगता कि वह विपक्षी खेमे से थीं।”

उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि नई पीढ़ी को किताबें पढ़ना बोरिंग लगता है क्योंकि उसके पास जानकारी प्राप्त करने के अन्य रास्ते हैं, लेकिन इसके लिए माता-पिता भी दोषी हैं।

कवि ने कहा, “आज माता-पिता बच्चों में पढ़ने की आदत डालने में असफल हो रहे हैं। शेल्फ पर एक फूलदान के साथ एक किताब है। किताब केवल सजावट के लिए है और माता-पिता इस किताब को बाहर नहीं निकालते और न इसे  पढ़ते हैं। अगर हमारे माता-पिता का व्यवहार ऐसा है, तो बच्चों में पढ़ने की आदत कैसे विकसित होगी।”

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