जब अग्नि, वायु, जल जो परमात्मा के बनाये हैं अपना स्वभाव नहीं त्यागते तो परमात्मा तो निश्चय ही सुख का प्रदाता है, उसका स्वभाव सदा सुख देने वाला ही रहेगा। वायु शरीर को छुऐगी तो अपनी उपस्थिति का बोध करा देगी। किसी को हाथ जोड़ने नहीं पड़ते कि हे अग्रि मुझे ठण्ड लग रही है उसे दूर कर। अग्रि के समीप जाइये वह अपना काम करेगी ही।
ऐसे ही भगवान के समीप बैठो, हाथ जोड़ो न जोड़ो, बोलो न बोलो कि परमात्मा मेरे दुख दूर करो। उनका स्वभाव ही ऐसा है दुख दूर होगा ही, अपने आप होगा। इसके लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, भागने की जरूरत नहीं, पर इंसान उल्टी तरफ दौड़ रहा है। जिधर से सुख आता है उधर, जिधर से ठंडी हवाओं का झोंका आता है उधर की तरफ मुंह करके नहीं बैठता। जिधर से माया की गर्मी आ रही है उधर की तरफ मुंह करके भाग रहे हैं।
वह (स्व) सुख स्वरूप है, सुख देने वाला है। हम परमात्मा के जितने समीप आते जायेंगे, उसी मात्रा में सुख की प्राप्ति होगी, अवश्य होगी, परन्तु हम अभागे हैं। हम उसका नाम तो लेते हैं, परन्तु उसका सानिध्य प्राप्त नहीं करते, क्योंकि उसका सानिध्य प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त करने का प्रयास हम करते ही नहीं।