Tuesday, May 21, 2024

देवदूत न सही, स्वप्न दृष्टा तो थे ही नेहरू !

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बाल दिवस जवाहर लाल नेहरु को गरिमा व सम्मान के साथ याद करने का दिन है  पर, दुर्भाग्य  से हमने राष्ट्रीय विभूतियों को दलगत आधार पर बांट लिया गया है और ऐसा  आजादी के बाद से ही होने लगा था और इसी प्रवृत्ति के शिकार कभी गणेश शंकर विद्यार्थी हुए तो कभी दीनदयाल उपाध्याय, कभी राम मनोहर लोहिया बिसराए गए तो कभी सुभाष चंद्र बोस  पर, कुल मिलाकर यह प्रवृत्ति बहुत ही अनर्थकारी है। राजनीतिक लक्ष्य साधने के लिए किसी दल ने गांधी पर कब्जा किया तो किसी ने दीनदयाल उपाध्याय पर पेटंट चस्पा कर दिया । कभी किसी को जे पी में क्रांति का सूत्रधार दिखा तो किसी को सरदार पटेल भाने लगे।

बरसों तक सुभाषचंद्र बोस पर धूल ढकी रही फिर अचानक ही उनकी फाइलें खोलने में दिलचस्पी जगी ।  कारण कुछ भी बताए जाएं पर सच क्या है यह भी जग जाहिर है वर्ना तो क्या कारण है कि कांग्रेस  व नेहरु खानदान के सत्ता में होते इंदिरा ही नहीं राजीव व संजय की भी पुण्य तिथि मनाई जाती है पर गोविन्द बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्त्री उपेक्षित कर दिए जाते हैं, नरसिंह राव किनारे होते हैं। जनता पार्टी के वक्त  जे पी ही जेपी का गान गाया जाता है तो भाजपा के आने पर दीनदयाल उपाध्याय व अटल बिहारी  सरदार वल्लभ भाई पटेल चमकने लगते हैं ।

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वी पी, मुलायम, लालू आदि के सत्तासीन होने पर राममनोहर लोहिया महान हो जाते हैं तो मायावती के शासन में कांशीराम स्तुति गान होता है  । अब ऐसे कहें या वैसे, इसे दोष दें या उसे पर कड़वा सच यही है कि अब महानता भी वक्त व कुर्सी के अनुसार तय हो रही है । जब बापू तक नहीं बचे तब नेहरु को ही क्यों बचना था। कोई माने या न माने पर नेहरु आज भी नए भारत के निर्माण के आधार स्तंभ ही कहे जाएंगें। निरपेक्ष सोच के हामी रहे  देश के पहले प्रधानमंत्री ने धर्म  मंदिरों, मस्जिदों व दूसरे धर्मस्थलों की बजाय बांधों, पुलों, व उद्योगों में भरत का भविष्य देखा।

नेहरु भले ही कुछ मुद्दों पर विवाद के केन्द्र हों पर एक प्रगतिशील हिंदुस्तान की बात जब-जब चलेगी तब -तब नेहरु की याद आएगी। आज उनकी जयंती पर उनके प्रदेयों व सकारात्म गुणों को याद  कर ही लें। विराट व्यक्तित्व के स्वामी नेहरु स्वप्नदृष्टा होने के साथ बच्चों के प्यारे चाचा भी थे । वें बच्चों पर जान छिड़कते थे व उन्हे देश का भविष्य कहते थे । अपने व्यस्ततम समय में से भी वें बच्चों के साथ खेलने व उनसे मिलने  का वक्त निकाल लेते थे । शायद बालसुलभ भोलापन उनकी ताकत भी था।

नेहरू एक राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता होने के साथ ख्यातिलब्ध लेखक  भी थे। 1936 में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई , अन्य रचनाओं में ‘भारत और विश्व ,’सोवियत रूस ,’विश्व इतिहास की एक झलक , ‘भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद , उल्लेखनीय हैं। नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया, ‘ग्लिम्पसेज ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री एवं ‘मेरी कहानी जैसी  ख्यातिप्राप्त पुस्तकों की रचना की है जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कलम पर भी जबरदस्त  पकड़ थी नेहरु की ।

जवाहरलाल देश में विज्ञान के विकास के हामी थे । 1947 ई. में  ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की।  ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता की प्रतीक है। उन्होने कहा था ”बांध व उद्योग देश के मंदिर हैं । नास्तिक नेहरु ने देश को अनेक बांध दिये जिसके परिणामस्वरूप  सिंचाई व बिजली का उत्पादन बढ़ा । नेहरु खेलों को शारीरिक व मानसिक विकास के लिए आवश्यक मानते थे । दूसरे देशों से मधुर सम्बन्ध कायम करने के लिए 1951 ई. में उन्होंने दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन कराया। उनका मानना था कि खिलाड़ी देश के सांस्कृतिक राजदूत हैं और दुनिया भर में शांति स्थापित करने का काम करते हैं । नेहरु का कहना था यदि देश में नेताओं की बजाय खिलाड़ी अधिक हों तों देश का माहौल कहीं अच्छा होगा ।

समाजवादी नेहरू ने भारत मे ‘लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा , लम्बी अवधि की आर्थिक योजनाएं बनाई और देश को पंचवर्षीय योजनाएं दी । वे 1938 ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित ‘राष्ट्रीय योजना समिति के अध्यक्ष व स्वतंत्रता पश्चात ‘राष्ट्रीय योजना आयोग के प्रधान बने। नेहरू जी ने साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। उनके  प्रयासों से ही भारत को धर्मनिरपेक्षराष्ट्र घोषित किया गया था।

जवाहरलाल नेहरू ने भारत गुट निरपेक्षता की नीति पर अग्रसर किया एवं पंचशील के माध्यम से विश्व  विश्वशांति को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया। पश्चिम में पले-बढ़े होने और स्वतन्त्रता के पहले की गई यूरोपीय यात्राओं के कारण उनकी सोच पर  पश्चिम का असर था पर उन्होंने अपने ही ढंग से भारत के विकास की ऐसी कहानी लिखी जिसे दुनिया में एक नज़ीर माना जाता है।

1947 से मुत्युपर्यंत नेहरू सत्ता में रहे इस दौरान उन्होंने लोकतंत्र व समाजवाद को मज़बूत किया उनके कार्यकाल में संसद में कांग्रेस को जबरदस्त बहुमत मिलता रहा। नेहरु ने  घरेलू नीति में लोकतन्त्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता बढ़ावा दिया और जीवन भर इन्हे बचाए रखने में कामयाब भी रहे। शांति के समर्थक नेहरु ने चीन की तरफ  दोस्ती का हाथ बढ़ा, ‘हिंदी चीनी भाई  भाई, का नारा दिया व ‘पंचशील  की स्थापना की पर चीन ने 1962 में भारत पर हमला के काफी बड़े भाग पर कब्जा कर लिया। इस विश्वासघात से नेहरु टूट गए यानी अतिभावुकता ने उनकी दूरदृष्टि पर एक प्रश्नवाचक  चिह्न लगाया ।

ऐसा नहीं कि नेहरु कोई देवपुरुष थे उनमें भी इंसानी कमियां थी, महत्वाकांक्षाएं थी, बस अपनी ही मनवाने की जि़द भी कही जा सकती है । सत्ता के सूत्र अपने हाथो में रखने का मोह भी रहा होगा और कश्मीर मामले में वें चूके भी । हो सकता है कि पटेल की कठोरता से वें घबराते हों, उनके लोकप्रिय होने का खतरा उन्हे सालता हो, सुभाषचंद्र बोस के मामले में भी उन पर उंगलिया उठीं पर क्या राष्ट्र निर्माण के स्वप्नद्रष्टा को केवल इसलिए विस्मृत कर देना चाहिए क्योंकि विरोधी दल के थे? क्या इसलिए उन्हे बिसराया जाना चाहिए कि उनके अनुयायियों ने औरों को बिसराया?

शायद नहीं क्योंकि काल पात्र से नेहरू को मिटाने से नेहरू के साथ देश की बहुत सारी उपलब्धियां भी मिटती हैं और केवल नेहरू के बहाने विपक्षियों को आईना दिखाने के लिए यह नहीं होना चाहिए। एक स्वप्नद्रष्टा के स्वप्न आज भी हरे हैं तो उन्हें हमें अपनी श्रद्धा का पानी देना ही चाहिए।
-डॉ.  घनश्याम  बादल

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