Friday, November 22, 2024

पवन पुत्र हनुमान और उनके आदर्श

दैवी अनुग्रह प्राप्त करने के लिए पूजा उपासना ही एकमात्र मार्ग नहीं है। उसके अतिरिक्त परमार्थ प्रयोजनों में रत रहने वालों ने भी आध्यात्म क्षेत्र में अभीष्ट सफलताएं पाई हैं। लोक सेवा भी किसी भजन, पूजन से कम महत्व की साधना नहीं है। ऐसे व्यक्ति नित्य नियम जितनी थोड़ी उपासना कर लेने से भी उच्चस्तरीय परिणाम प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। विवेकानंद, गांधी, विनोबा आदि के उदाहरण ऐसे ही हैं, जिनमें सेवा साधना ही प्रधान है।
पूजा-अर्चना तो वे थोड़ी-सी ही करते रहे हैं सो भी एकान्तिक नहीं सामूहिक। भगवान बुद्ध और महावीर ने भी आंरभिक दिनों में ही तपश्चर्या अपनाई थी उसके उपरान्त वे धर्म चक्र प्रवृत्तियों को विश्वव्यापी बनाने, उसके लिए परिव्राजक प्रशिक्षित करने तथा साधन जुटाने में ही निरत रहे। गुरू गोविन्द सिंह, समर्थ गुरु रामदास आदि की गणना भी ऐसे ही कर्मयोगियों में की जाती है जिन्होंने भजन कम और परमार्थ अधिक किया है।
देवर्षि नारद के संदर्भ में उल्लेख है कि वे ढाई घड़ी से अधिक ठहरते नहीं थे और भक्ति भावना के विस्तार में हरिगुण गाते हुए निरंतर परिभ्रमण करते रहते थे। महर्षि व्यास ने अठारह पुराण लिखे हैं। उनका समय निश्चय ही लोक साधना में अधिक और पूजा अर्चना में कम लगता रहा होगा।
ये सभी जानते थे कि भगवान की अनुकंपा के अधिकारी वे अधिक होते हैं जो उनकी संतान को सुखी, समुन्नत बनाने में निरत रहते हैं। जिन्हें उपासना की सरलता देखकर उतने भर से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और भगवत कृपा उपलब्ध हो जाने की बात सूझती है उन्हें भी बताया जाता है कि आराधना बीजारोपण के समान है, उसे अंकुरित, पल्लवित और फलित, विकसित बनाने के लिए साधना का खाद-पानी लगाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। साधना का सुयोग महामानवों जैसी उदात्त जीवनचर्या एवं लोक मंगल के निमित्त किए गए त्याग, बलिदान के समन्वय से बनता है।
इन दिनों आपत्तिकाल जैसी विशिष्ट परिस्थितियां हैं। इसमें सब काम छोड़कर जीवन और मरण के बीच झूलती हुई मानवता की प्राण रक्षा को सर्वाेपरि महत्व मिलना चाहिए।
ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए कैसा जीवन क्रम अपनाया जाना चाहिए इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं पवन पुत्र हनुमान। उन्हें राम के निकटतम आत्मीयों में गिना गया है। राम पंचायतन में कुटुंब की दृष्टि से तो चारों भाई तथा सीता मिलकर पांच होते हैं पर स्थापनाओं में हनुमान को भी रखा गया है और नाम पंचायतन होते हुए भी उसके सदस्यों की संख्या पांच न रहकर छह हो जाती है जबकि हनुमान रघुवंशी तो क्या मनुष्यवंशी भी नहीं थे।
पवन पुत्र हनुमान की चरम उपलब्धि है- रामावतार का निकटतम ही नहीं सूत्रसंचालन बन जाना। इस वस्तुस्थिति का प्रकटीकरण उस चित्र से होता है, जिसमें हनुमान को विशालकाय दिखाया गया है और राम लक्ष्मण उनके दोनों कंधों पर छोटे बालकों की तरह दिखाई पड़ते हैं। प्रकारांतर से इसका तात्पर्य होता है उन उत्तरदायित्वों का परोक्ष रूप से वहन करना जो प्रत्यक्षत: राम, लक्ष्मण द्वारा निभाए गए समझे जाते हैं। समयानुसार उन्हें इस साहसिक श्रद्धा का सत्परिणाम भी व्यापक कृतज्ञता के रूप में मिला है। भारत में पाए जाने वाले राम मंदिरों की तुलना मेंं हनुमान मंदिरों की संख्या प्राय: दस गुनी अधिक है। इसका तात्पर्य राम के प्रति अश्रद्धा नहीं वरन हनुमान के प्रति कृतज्ञता का प्रकटीकरण है। यह उच्चस्तरीय सफलता हनुमान को उपहार में नहीं मिली थी वरन उन्होंने उसे महंगा मूल्य देकर खरीदा था। उन्होंने अपने रोम-रोम में राम को बसा लिया था।
‘राम काज कीन्हें बिना मोहि कहां विश्राम की रट लगी रहती थी और इसके लिए अपनी समग्र चेतना और तत्परता नियोजित किए रहते थे। उनके ह्रदय में अन्य कोई निजी इच्छा महत्वकांक्षा न थी। एकात्म की स्थिति में निजी लिप्सा-लालसाएं विसर्जित ही करनी पड़ती हैं। सीता को यह वस्तुस्थिति एक बार उन्होंने हृदय चीर कर दिखाई थी। पवन पुत्र हनुमान के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुए राम ने अयोध्या लौटने पर गुरू वशिष्ठ के सम्मुख अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय हनुमान को देते हुए उन्हें भरत की तरह प्राण प्रिय बताया था। यह उभयपक्षीय आत्मीयता इतनी सघन कैसे हो सकी, इसमें भावुकता का उभार या अनुग्रह जैसा कोई कारण नहीं था। उसके मूल में उन साधनाओं का चमत्कार था जो इष्टदेव का ध्यान पूजन करने तक सीमित नहीं रहती वरन् उनकी इच्छा के लिए अपनी इच्छा का समर्पण करके अपने साधनों को उसी की पूर्ति में खपा देती हैं। राम पंचायत में सदस्य वस्त्राभूषण पहने सम्मानित स्थान पर बैठे दृष्टिगोचर होते हैं, पर पवन पुत्र के शरीर पर लज्जा वस्त्र की तरह लंगोटी मात्र है और उन्होंने अपना स्थान सबसे नीचे चरणों के समीप बैठने का बनाया है।
राम से हनुमान का संपर्क जिस दिन से हुआ, उस दिन से जीवन पर्यन्त वे उन्हीं के छोटे-बड़े कार्यों की पूर्ति में अहर्निश लगे रहे। उन सभी कृत्यों की गणना कर सकना तो कठिन है पर पांच उनमें प्रमुख हैं-(1) सुग्रीव को अपनी समस्त सेना राम काज में नियोजित कर लेने के लिए सहमत कर लेना। (2) सीता को खोजे बिना वापस न लौटने का संकल्प करना और उसे निभाना। (3) समुद्र लांघने और लंकादहन का एकाकी दुस्साहस करना। (4) लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए सुखेन वैद्य को चुरा कर लाना ही नहीं, वरन पर्वत समेत संजीवनी बूटी प्रस्तुत करना। (5) रामराज्य की स्थापना में अश्वमेध सरीखे असंख्य प्रयोजनों की पूर्ति में अंतिम सांस तक लगे रहना। ऐसे -ऐसे अन्यान्य कार्य भी हैं, जिनकी पूर्ति में सर्वतोभावेन निरत रहकर उन्होंने वह श्रेय पाया, जिसे ‘राम से अधिक राम के दास वाली उक्ति में रामायणकार ने प्रकट किया है।
पवन पुत्र की जीवन चर्या में पूजा अर्चना के सस्ते मनुहार, उपचार कितने थे इसका कुछ अता -पता नहीं चलता। संभव है वे नित्य कर्म स्वल्प रहने के कारण पर्यवेक्षकों की दृष्टि में महत्वपूर्ण नहीं रहे हों। अतएव उनकी खोज या चर्चा अनावश्यक समझी हो। सर्वविदित वे प्रसंग ही हैं जिनमें उनकी सघन श्रद्धा, सेवा साधना बनकर उफनती उछलती दृष्टिगोचर होती है।
तराजू का एक पलड़ा भारी होगा तो दूसरा उठेगा। परमार्थ सधेगा तो स्वार्थ में निश्चित रूप से कमी पड़ेगी। जो स्वार्थ सिद्धि के लिए परमार्थ की सोचते हैं वे भूल करते हैं वस्तुत: परमार्थ परायण होने पर श्रेय और प्रेेय दोनों का लाभ मिलता है। प्रकाश की ओर चलने से चेहरे पर आभा चमकती है और छाया को पीछे-पीछे चलते देखा जा सकता है। छाया के पीछे दौडऩे वालेेे उसे पकड़ नहीं पाते, थकते ही हैं।
पं. लीलापत शर्मा – विनायक फीचर्स

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