Friday, November 22, 2024

शारीरिक श्रम और गांधी जी के विचार

श्रम को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम। शारीरिक श्रम वह है जिसमें हम शरीर के अंग प्रत्यगों तथा अवयवों से काम लेते हैं और मानसिक श्रम वह है जिसमें हम अवयवों की अपेक्षा मस्तिष्क का अधिक उपयोग करते हैं। विस्तृत अर्थ में दोनों श्रम में भिन्नता नहीं है। मानसिक श्रम में भी हमें शारीरिक श्रम कुछ न कुछ मात्रा में करना ही पड़ता है और शारीरिक श्रम में भी मस्तिष्क का उपयोग अवश्य ही होता है।

समाज में दोनों ही श्रमों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य ने आज तक जो कुछ भी पाया है वह इन श्रम-द्वय का ही परिणाम है किंतु अंग्रेजी शासनकाल में एक बहुत बड़ी वैचारिक बुराई ने जन्म लिया। वह थी शारीरिक श्रम की अपेक्षा बौद्धिक श्रम की श्रेष्ठता। परिणामत: शारीरिक श्रमहीन दृष्टि से देखा जाने लगा और बौद्धिक कार्य करने वाले स्वयं को समाज का श्रेष्ठ वर्ग समझने लगे।

हमारी संपूर्ण अर्थ-व्यवस्था का चक्र शारीरिक श्रम के बल पर ही पूर्ण होता है। एक कृषक, मिल या कारखाने में कार्य करने वाला श्रमिक तथा आम उपयोग में आने वाली वस्तुओं को बनाने वाला कोई भी कारीगर शारीरिक श्रम के बिना उसे पूरा नहीं कर सकता। इस प्रकार हर निर्माण में कायिक श्रम की उपस्थिति अनिवार्य है। गांधीजी ने शारीरिक श्रम को समुचित महत्व दिया। इस विषय में उनके विचार अत्यंत स्पष्ट हैं। वे शारीरिक श्रम को सिर्फ उत्पादन ही नहीं, बल्कि आनंद का स्रोत भी मानते थे। उनका कहना था कि कोई भी श्रम क्यों न हो, अगर बुद्धिपूर्वक और ऊंचे उद्देश्य को सामने रखकर किया जाये तो वह उत्पादक बन जाता है और उससे आनंद भी प्राप्त होता है।

उनकी मान्यता थी कि बुद्धिपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाज सेवा है। कारण यह है कि कोई मनुष्य अपने शारीरिक श्रम से देश की उपयोगी सम्पत्ति में वृद्धि करता है। इससे उत्तम और हो ही क्या सकता है। गांधीजी सच्चे अर्थों में कर्मठ थे। वे उपदेशक कभी नहीं रहे वरन हर कार्य को करके दिखाने में उनका विश्वास था। शारीरिक श्रम को भी उन्होंने कभी भी हीन नहीं समझा और न वे शारीरिक श्रम करने से कभी हिचके। वे पहले कार्य स्वयं करके ही दूसरों से उसे करने का आग्रह करते थे। दक्षिण अफ्रीका मैं अपने प्रवास के समय मैला साफ करने जैसे कार्य को करने से भी वे नहीं चूके थे।

स्वयं अपने हाथों से आश्रम की सफाई तथा मीलों पैदल चलना उनके शारीरिक श्रम में विश्वास के ही उदाहरण हैं। इतना ही नहीं, दिन रात मेहनत करने वाले ग्रामीण भारतीयों को हम भूल न जावें, इसलिए उन्होंने कृषक और उसके कार्य को अत्यधिक महत्त्व दिया। उनका दृढ़ मत था कि यदि सब लोग अपने ही परिश्रम की कमाई खायें तो दुनियां में अन्न की कमी न रहे और सबको अवकाश का पर्याप्त समय भी मिले।

जो अपने हिस्से का काम किये बिना भोजन पाते हैं, वे चोर हैं। शारीरिक श्रम का पवित्रा उद्देश्य स्पष्ट करते हुए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- ‘शारीरिक श्रम के नियम पर चलने से समाज में एक शांतिमय क्रांति पैदा होगी। जीवन संग्राम के स्थान पर पारस्परिक सेवा की प्रतिस्पर्धा स्थापित करने में मनुष्य की विजय होगी। पाशविक नियम का स्थान मानवीय नियम ले लेगा।

मानवीय और पाशविक श्रम की यह एक विशेषता है कि उसका संचय तथा संग्रह करके रखना असंभव है अर्थात यदि हम किसी दिन कोई कार्य न करें, तो उस दिन की सारी श्रम शक्ति व्यर्थ जाती है। अत: इस श्रम यज्ञ को निरंतर करते रहने की प्रेरणा दी है। उनका श्रम या तो निरंतर चलता ही रहता था। सुबह 4 बजे  से रात 11 बजे तक कभी-कभी तो इससे भी अधिक समय के लिए वे किसी न किसी काम में व्यस्त रहते थे। एक मिनट भी व्यर्थ सोना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वे सब काम नियमपूर्वक तथा नियत समय पर करने के आदी थे। कई बार उन्होंने 20-22 घंटे तथा रेलगाड़ी में सफर करते समय कार्य किये।

हरिजन सेवक के लिए वे रेल में ही लेख लिखते और आये हुए हजारों पत्रों का जवाब देते थे पत्र । कोई भी पत्र बिना जवाब के न रह जाता। अपना काम स्वयं करने में उनका अटूट विश्वास था। दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल शहर में वृद्ध, बीमार तथा स्त्रियों के कपड़े उन्होंने कई बार स्वयं अपने हाथों से धोये थे। वे उनसे कहते- क्या आप लोगों के पास मैले कपड़े हैं? कृपया औरों के भी मैले कपड़े ला दें, मैं उन्हें धो लाऊं। इस तरह जितने कपड़े उन्हें मिलते थे वे पास के नाले में उन्हें धो लाते और सुखा कर उन्हें वापस कर देते। दक्षिण अफ्रीका में तो उन्होंने अनेक बार खड़े-खड़े ही घंटों रेल यात्रा की और कभी कभी जगह मिलने पर भी वे स्त्रियों और बच्चों को अच्छी तरह से स्थान देकर ही स्वयं बैठे या खड़े खड़े ही मीलों यात्रा करते।

चरखा चलाने को वे रामनाम लेने से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। जरा भी समय मिलता तो चरखे को अर्पण हो जाता था और सूत के तार निकल पड़ते, निर्माण कार्य चलता और चलता रहता।
वृद्धावस्था तथा अत्यंत व्यस्त होने पर भी कई बार उन्होंने अपने कपड़े स्वयं धोये। गांवों में निवास के समय वे स्वयं नदी से घड़ा भरकर ले आते थे। हाथ से सने आटे को उन्होंने सदा श्रेष्ठ बताया और कई बार हाथ चक्की भी चलाई। बैरिस्टर होकर भी ‘बुहारा’ निकाला, पाखाना साफ करना तथा कंपोज करने जैसे कार्य में उन्हें कभी भी हिचक महसूस नहीं हुई। इस प्रकार बापू के जीवन में शारीरिक और मानसिक श्रम के अदभुत समन्वय के दर्शन होते हैं।
-ललित नारायण उपाध्याय

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