सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के नायगांव में पिता खन्दोजी नेवसे व माता लक्ष्मी के घर हुआ। 1840 में 9 वर्ष की आयु में उनका विवाह समाज-सुधारक ज्योतिबा (ज्योतिबा) फुले के साथ हुआ। विवाह के समय वे अनपढ़ थी। सावित्रीबाई फूले के पति ज्योतिबा फुले उनके जीवन में शिक्षक बनकर आए। 1841 में पढऩे-लिखने का प्रशिक्षण उन्हें ज्योतिबा फुले से ही मिला। पूना में अंग्रेजी अधिकारी रे जेम्स मिचेल की पत्नी नारी शिक्षा की पक्षधर थी। अत: नार्मल स्कूल द्वारा सावित्री बाई फुले को विधिवत अध्यापिका का प्रशिक्षण दिया गया। उन्होंने जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान इन तीन सालों में अपने पति और सामाजिक क्रान्तिकारी नेता ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लगातार एक-एक करके बिना किसी आर्थिक मदद और सहायता के लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोलकर, शैक्षणिक-सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया। इस तरह का क्रान्तिकारी और समाज व्यवस्था में बदलाव लाने वाला काम देश में सावित्री बाईफूले से पहले किसी और ने नहीं किया था लेकिन तत्कालिक जातीवादी व महिला शिक्षा के विरोधी लोगों द्वारा सावित्रीबाई फूले को प्रताडि़त किया जाने लगा। जब भी सावित्री बाई फुले स्कूल जाती थी, तो लोग उन पर पत्थर और गोबर फेंक दिया करते थे। ऐसा प्रतिदिन होता था लेकिन सावित्रीबाई पीछे नहीं हटी और उन्होंने इसका हल भी ढूंढ लिया। वे अपने साथ एक अतिरिक्त साड़ी भी लेकर स्कूल जाने लगी। ताकि वहां जाकर साड़ी बदल सके। भारी विरोध व प्रताडऩा के बाद भी सावित्रीबाई फूले ने स्कूल जाना नहीं छोड़ा। सावित्री बाई फुले देश की महिला शक्ति के लिए एक मिसाल और प्रेरणा हैं कि अगर दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति हो तो समाज में नई चेतना का विस्तार किया का सकता है। सावित्री बाई फुले को देश की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है।
सावित्रीबाई फुले देश में महिला शिक्षा जागृति एवं सामाजिक चेतना आंदोलन की प्रवर्तक थी। वे नारी शिक्षा एवं दलित महिला आन्दोलन की साहसी अग्रदूत महिला थी, वहीं वे एक कुशल सामाजिक कार्यकर्ता भी थी। सावित्री बाई फुले कोई साधारण महिला नहीं थी, जिन्हें इतिहास के गर्भ में छिपा दिया जाए और वे गुमनामी के अंधेरों में छुप जायें। उन्नीसवीं शताब्दी की वह एक क्रांतिकारी चिंगारी थी, जिन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अन्दर अपनी न केवल क्रांति बिखेरी बल्कि अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग धार्मिक कर्मकांडों को प्रति आवाज उठाकर अछूतों व स्त्रियों के लिये शिक्षा के द्वार खोल दिये। तत्कालीन समाज की विकट परिस्थितियों से टकराते हुए समाज सुधारक सावित्री बाई फुले युग प्रवर्तक बनकर सामने आयी। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि, निर्भीक व्यक्तित्व, सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत ज्योतिबा फुले के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाज की दकियानुसी सोच बदलने के लिए न्याय-चिंतन के आधार पर कठोर संघर्ष किया। उन्होंने महिला जीवन को गौरवान्वित करते हुए सामाजिक न्याय के लिए भरसक प्रयास किये। फुले दम्पति ने संयुक्त रूप से नारी मुक्ति के लिए परम्परागत सामाजिक रुढिय़ों का खण्डन व खुलकर विरोध किया। देश में प्रथम बार सती-प्रथा तथा विधवा-मुंडन का विरोध एवं विधवा-विवाह का समर्थन कर विधवा जीवन की त्रासदी को समझा। सावित्रीबाई फूले के जागृति पूर्ण कार्यों में समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फूले के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है।
सावित्री बाई ने 1853 में बालहत्या प्रतिबंधक गृह स्थापित किये। जिसमें विधवाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी। अगर वो मां अपने बच्चे को साथ न रख पाएं, तो वो उसे वहां छोड़कर भी जा सकती थी। क्योंकि उस समय विधवा को उसके सगे संबंधी या अन्य गर्भवती बना छोड़ देते थे। परिवार व समाज द्वारा उन्हे अपनाने से इनकार कर दिया जाता था, इससे बचने के लिए विधवा महिलायें अपने बच्चों को आश्रय के लिए छोड़ देती थी। तत्कालीन समाज की ऐसी विकट समस्याओं के लिए सावित्री बाई का कार्य बेहद ही सराहनीय थी। सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फूले ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। जिसके माध्यम से विधवा विवाह की परंपरा शुरू की और इस संस्था के द्वारा प्रथम विधवा पुनर्विवाह 25 दिसंबर 1873 को सम्पन्न करवाया गया। इसके अलावा उन्होंने मजदूरों के लिए रात्रिकालीन स्कूल खोला ताकि दिन में काम करने वाले मजदूर रात में पढ़ भी सकते हैं। उन्होंने दलित-वंचितों के लिए अपने घर का कुआं खोल दिया था, यह उस समय की बहुत बड़ी घटना थी। एक बार पुणे में प्लेग फैला तो सावित्री बाई फूले 66 वर्ष की अवस्था में अपने पुत्र डा. यशवंत के साथ पूरी मेहनत व तन-मन से रोगियों की सेवा में जुटी रही, लेकिन दुर्भाग्य से सावित्री बाई फूले प्लेग का शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 को इस महान विभूति का निधन हो गया।
-डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल