पूरे विश्व की जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। विश्व के देश इसे लेकर चिंतित हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नदियों में जल की मात्रा घट रही है। अनेक नदियां विलुप्त हो रही हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलस्तर बढऩे के कारण कई देशों में जल प्रलय के हालात बन सकते हैं। धरती गर्म हो रही है। तापमान बढ़ रहा है। इसी बढ़े तापमान को ग्लोबल वार्मिंग कहा जा रहा है। विश्व भर में गैसों की चर्चा में उनके उत्सर्जन में कमी लाने के लिए दुनिया के देशों में सम्मेलनों के निष्कर्ष रिपोर्टों से लक्ष्य तय कर रहे हैं। कई सम्मेलनों, राष्ट्राध्यक्षों, विदेश मंत्रियों के वक्तव्यों से पर्यावरणीय समस्याएं हल नहीं हो पा रही हैं। पर्यावरण को लेकर पूरी दुनिया के वैज्ञानिक चिंता जता रहे हैं। मगर चिंता के आधार पर कोई देश सकारात्मक कार्रवाई करने को तैयार नहीं है। दूसरा विषय यह भी है, कि राजनीति और पत्रकारिता से जुड़े लोग पर्यावरण को मात्र विकास से जोड़कर देखते हैं।पर्यावरण में क्या प्रयास सही है जो करने योग्य है? अथवा क्या नहीं करने से पर्यावरण ठीक रहेगा? इसकी सटीक जानकारी ही नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र से आने वाले लोगों को क्या चिंता पड़ी है कि यह जानें-पर्यावरण क्या है। कैसे पर्यावरण शुद्ध या अशुद्ध होता है। उनके सहायकों और अधिकारियों द्वारा कुछ इधर-उधर की सामग्री जुटाकर भाषण के लिए उपलब्ध कराई जाती है। भाषण से पर्यावरण कैसे ठीक होगा। भाषण से बैठक या रैली ठीक या खराब हो सकती है। पर्यावरणीय नफा-नुकसान राजनीति में बेमतलब है।
पर्यावरण दिवस विश्व के 143 देश में मनाया गया। अंग्रेजी भाषा में पर्यावरण शब्द की उत्पत्ति फ्रांसीसी शब्द एनवायरमेंट से हुई है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में भारत की संसद ने अधिनियमित किया था इसका मुख्य उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के निर्णय को लागू करना था। 5 जून 1973 को पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर राजनीतिक के साथ सामाजिक जागरूकता लाने हेतु इस दिवस की घोषणा की गई थी। 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनीरियो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ। विश्व के 174 देशों ने भागीदारी की दूसरा सम्मेलन जोहान्सबर्ग में हुआ था। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों 48 अ जोड़ा गया और कहा गया कि राज्य के पर्यावरण और वनों वन्य जीवन की सुरक्षा के विकास के उपाय करेगा। साथ ही संविधान के मौलिक कर्तव्यों के आधार पर अनुच्छेद 51 ए जी में कहा गया कि वनों जिलों नदियों और वन्य जीवन की सुरक्षा विकास और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हर एक नागरिकता कर्तव्य होगा। नीति निर्देशक सिद्धांतों की कार्यवाही सरकारी भाग है।
भारतीय अवधारणा है कि एक दैवीय तत्व होता है। उसे हम सकारात्मक कहते हैं, वहीं दूसरा आसुरी तत्व होता है, जिसे हम नकारात्मक कहते हैं। जहां आसुरी शक्तियां हैं, वहां हमें सुरक्षा चाहिए। सुरक्षा कवच ही पर्यावरण है। इसे हम पर्यावरण कहते हैं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में पर्यावरण को परिधि, आवरण, परिभू आदि नामों से कहा गया है। नारदीय सूक्त में है कि सृष्टि के पूर्व न सत था, न असत था, न लोक था, न आकाश, न उससे परे कुछ था, तब किसने हमें ढंक रखा था। आवरण क्या जल था?
पर्यावरण में केवल पेड़-पौधे और वनस्पतियां ही आवश्यक नहीं है। हमारे विचार स्वच्छ हों। हमारा आहार ठीक हो। हमारा व्यवहार ठीक हो। हम अच्छा संगीत सुनें। भयंकर आवाज वाले आधुनिक डीजे व्याकुलता पैदा करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, औद्योगिक कारखानों का शोरगुल, उनसे निकलता घातक केमिकल, वाहनों की ध्वनि, धुआं, उनमें जलता लाखों-करोड़ों लीटर डीजल-पेट्रोल हमारे मन मस्तिष्क को ही कमजोर नहीं करता, अनेक जीवन निगल लेता है। यह आकाश में जाकर विचलन पैदा करता है। परम ऊर्जा को विनाश की ओर ले जाता है। परमाणु परीक्षण के विकिरण घातक हैं। यह सामान्य जन नहीं जानते। पहाड़ों का रहना कितना आवश्यक है, यह इंजीनियर नहीं जानते।
जीव-जंतु घबराए हुए हैं। पहाड़ कांप रहे हैं। नदियां लगता है कि विदाई की ओर हैं। अब उनका कल-कल निनाद घट रहा है। आकाश से वायु पैदा होती है। वायु हमारे पर्यावरण की प्राण ऊर्जा है। इसलिए इसे प्राण वायु कहते हैं। इसी से जीवन है। श्वांस प्रतिश्वांस यही है। जिस तरह पृथ्वी और आकाश के बीच वायु का संचरण होता है, ठीक उसी तरह हमारे शरीर के भीतर भी प्राण ऊर्जा है। शरीर विज्ञानी इसे ही ऑक्सीजन कहते हैं। जब शरीर में प्राण वायु घटने लगती है, व्यक्ति थोड़ा मृत्यु की ओर बढऩे लगता है। प्राण वायु समाप्त होते ही मृत्यु घटित हो जाती है। पृथ्वी और आकाश के बीच की प्राणवायु प्रदूषित हुई है। ग्रहों के बीच अंतरिक्ष से उत्पन्न होने वाला अनहद नाद डगमगा रहा है। लगता है मनुष्य की अभीप्साओं के कारण धरती की गंगा दुखी हैं। उदास है। प्रदूषित है। कचरा युक्त है। सौंदर्य विहीन होने की ओर अग्रसर है। इस तरह आकाश में स्थित आकाशगंगा भी व्यथित और उदास है। कारण दुनिया भर में प्रकृति के विरुद्ध कार्रवाई जारी है। वनों को काटा जा रहा है।
पहाड़ों को डायनामाइट से तोडऩे की दशकों पुरानी तकनीक जारी है। मछलियों और जलीय जीवों के जीवित रहने का अधिकार आधुनिक विज्ञान और मनुष्य छीन रहे हैं। कछुए खाए जा रहे हैं। गौवंश अपने जीवन को बचाने के लिए में संघर्षरत हैं। बैल विदाई की ओर हैं। कीट-पतंगे आधुनिक कीटनाशकों से निर्वाण को प्राप्त हो रहे हैं। गिद्ध अब दिखें तो शोध का विषय हो गए हैं कि क्यों दिखाई पड़े। आंगन की गौरैया परम तत्व से मिलकर विलीन होने वाली है। वह अब आंगन में स्नान करने और अपने गीत सुनाने नहीं आती। कोयल, पपीहा, कौवा के लिए अब देश हुआ विराना की स्थिति है सभी पक्षी उदास हैं। अब मोर मयूर भी कम हो रहे हैं उनके प्रति आदर भाव घट रहा है वे अब सावन में भी कम दर्शन देते हैं।
मौलिक कर्तव्य का हिस्सा समाज की जिम्मेदारी में आता है। सरकार और नागरिक दोनों ने पर्यावरण जैसे गंभीर विषय से अपने को मजबूती से सम्बद्ध नहीं किया। विकास की बात पर जनता आकर्षित होती हैं। विचार नहीं करते कि हमारी प्राकृतिक संपदा, नदियां पहाड़ नैसर्गिक वन-वनस्पतियां नष्ट होने के नुकसान क्या है। नदियों पर बने बड़े बांधों पुलों का निर्माण हमें लाभ कम, नुकसान अधिक देता है। जिनके लिए बांध-पुल बनाते हैं उन्हें ही विस्थापित होना खतरनाक होता है। विस्थापित जनों की संस्कृति नष्ट हो जाती है। भूगोल बदल जाता है। जीवनदायी वनस्पतियां नष्ट हो जाती हैं। हमें यह विचार करना होगा कि ध्वंसात्मक विकास भारी आपदाओं की ओर धकेल रहा है। बाढ़ सूखा भूमि का बंजर होना, रेगिस्तान बन जाना, पहाड़ों का गिरना, बादलों का फटना, बादल फटने के साथ नगरों का बह जाना, जन-धन की हानि भी बड़े पैमाने पर होती है। पानी की कमी लगातार हो रही है। भारत के कई बड़े नगरों में पानी का संकट है। अब कम गहराई वाले सिंचाई के बोरिंग नल फेल हो रहे हैं। ऐसे में पर्यावरण दिवस मनाकर छोड़ देना आने वाला समय में हम सबके लिए घातक ही सिद्ध होगा।
-अरुण कुमार दीक्षित