Friday, March 28, 2025

प्रकृति और मनुष्य के बीच है शाश्वत रिश्ता!

संस्कृत में कहा गया है -शाश्वतम्, प्रकृति-मानव-सङ्गतम्,सङ्गतं खलु शाश्वतम्। तत्त्व-सर्वं धारकं, सत्त्व-पालन-कारकं, वारि-वायु-व्योम-वह्नि-ज्या-गतम्। शाश्वतम्, प्रकृति-मानव-सङ्गतम्।। अर्थात इसका भावार्थ यह है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच का संबंध शाश्वत है।रिश्ता शाश्वत है। जल, वायु, आकाश के सभी तत्व, अग्नि और पृथ्वी वास्तव में धारक हैं और जीवों के पालनहार हैं।

सच तो यह है कि प्रकृति हमें पत्र, फूल, फल, छाया, जड़, बल्क, लकड़ी और जलाऊ लकड़ी, सुगंध, राख, गुठली और अंकुर प्रदान करके हमारी इच्छाओं को पूरा करते हैं। इसीलिए संस्कृत में कहा गया है कि -पुत्रपुष्यफलच्छाया मूलवल्कलदारुभि:।गन्धनिर्यासभस्मास्थितौस्मै: कामान् वितन्वते।। हाल ही में 3 अक्टूबर को हम सभी ने ‘विश्व प्रकृति दिवस मनाया। प्रकृति का मानव जीवन में बहुत बड़ा महत्व है और प्रकृति के महत्व के बारे में आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से ही इस दिवस को मनाया जाता है।

वास्तव में , प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्रकृति के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकता है। प्रकृति है तो मनुष्य व जीव जंतुओं का अस्तित्व इस धरती पर है। प्रकृति नहीं है तो कुछ भी नहीं है। जानकारी देना चाहूंगा कि प्रकृति दो शब्दों से मिलकर बनी है – ‘प्र’ और ‘कृति।’ ‘प्र’ अर्थात प्रकृष्टि (श्रेष्ठ/उत्तम) और ‘कृति’ का अर्थ है रचना। ईश्वर की श्रेष्ठ रचना अर्थात सृष्टि।प्रकृति से सृष्टि का बोध होता है। प्रकृति अर्थात वह मूलत्व जिसका परिणाम जगत है। प्रकृति ने मानव के लिए जीवनदायक तत्वों को उत्पन्न किया है।

सच तो यह है कि प्रकृति मनुष्य को विरासत में बहुत सी चीजें, संसाधन(रिसोर्स) प्रदान करती है लेकिन हम प्रकृति के संरक्षण की बजाय उसे नुकसान अधिक पहुंचाते हैं , सच तो यह है कि हम प्रकृति के प्रति अपने योगदान, अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझते हैं और प्रकृति का लगातार दोहन करने में लगे रहते हैं। लेकिन हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि हर दिन हमारे हर किसी के छोटे-छोटे योगदान से ही, हम अपने ग्रह, अपनी पृथ्वी को बचा सकते हैं, इसका संरक्षण कर सकते हैं और उस प्रकृति को फिर से प्राप्त कर सकते हैं, जो कि हमें विरासत में मिली है। प्रकृति और मनुष्य वास्तव में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रकृति में हर किसी का अपना महत्व है। मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान बताया गया है। संस्कृत में कहा गया है कि ‘पश्यैतान् महाभागान् पराबैंकान्तजीवितान्।
वातवर्षातपहिमान् सहन्तरे वारयन्ति न:।।’ यानी कि पेड़ इतने महान हैं कि वे केवल दान के लिए जीते हैं। वे तूफान, बारिश और ठंड को अपने आप सहन करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में तो पेड़-पौधों को पूजने तक की परंपरा रही है, इसीलिए संस्कृत में बड़े ही सुंदर शब्दों में यह भी कहा गया है कि -‘दश कूप समा वापी, दशवापी समोह्नद्र:।दशह्नद सम: पुत्रों, दशपुत्रो समो द्रमु:।। यानी इसका मतलब यह है कि एक पेड़ दस कुओं के बराबर,एक तालाब दस सीढ़ी के कुएं के बराबर, एक बेटा दस तालाब के बराबर, और एक पेड़ दस बेटों के बराबर होता है। इसलिए प्रकृति की रक्षा करना हम सभी का परम दायित्व है।

प्रकृति उदार है लेकिन मनुष्य प्रकृति के प्रति कभी अपनी उदारता नहीं दिखाता। वास्तव में, प्रकृति और मनुष्य का संबंध आश्रय और आश्रित का है। प्रकृति संपूर्ण पृथ्वी ग्रह को अपने भीतर संरक्षण देती है। ‘प्रकृति’ किसी व्यक्ति, समाज, राज्य, या देश, की निजी संपत्ति नहीं होती। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि समस्त प्राणियों के जीवन की एकमात्र जननी प्रकृति ही है।हमें जीवन देकर इसे सुचारु रूप से चलाने वाली प्रकृति ही हमारी जननी है और इस प्रकृति को जीवन देकर सुचारू रूप से चलाने वाली वह परम शक्ति ही विधाता, ईश्वर, या सर्वोपरि सत्ता है।

बहरहाल, प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग कभी भी स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती है, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते हैं, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका मतलब यह है कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे गुस्सा आता है, जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है।

ग़लत नहीं है कि वर्तमान समय में व्यक्ति अतृप्त लालसाओं का बढ़ते जाना उसे अपने ही अस्तित्व की समाप्ति की ओर लेकर जा रहा है। यही कारण है जीवन के संतुलन के लिए प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध चरमरा गया है। यह असंतुलन मनुष्य की लालसावादी मनोवृति से उपजा है। अपनी धरती को हरा भरा, सुंदर व स्वच्छ रखना हम सभी का परम और नैतिक दायित्व है।

आज विश्व की लगातार बढ़ती जनसँख्या, बढ़ता प्रदूषण जिसमें वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, जल प्रदूषण, प्लास्टिक व पालीथीन प्रदूषण शामिल किया जा सकता है, मानवजाति के लिए बहुत ही चिंता का विषय है। प्रतिवर्ष धरती बढ़ता तापमान, नष्ट होता पर्यावरण, ओजोन परत का लगातार क्षरण, आज मनुष्य के लिए घोर चिंता के विषय बन गए है और ये हमारी धरती को लगातार विनाश की ओर धकेल रहे हैं।

धरती के लगातार बढ़ते तापमान के कारण आज बहुत से जीव जंतु, वनस्पतियां जहां विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं, वहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं। मनुष्य की उपभोगवादी प्रवृति से निर्मित कार्बन उत्सर्जन है जिसने ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति को बढ़ावा दिया है।आज कभी भूस्खलन हो रहे हैं तो कहीं पर बाढ़ व कहीं पर अनावृष्टि देखने को मिल रही है। कहना ग़लत नहीं होगा कि ये सब प्राकृतिक असंतुलन के कारण हो रहा है। इसलिए प्रकृति की सुरक्षा करना बेहद जरूरी है।

सच तो यह है कि आज हमें अपने आपको बदलने की जरूरत है, प्रकृति को नहीं। हम सबके जीवन का आधार हमारी प्रकृति को सुरक्षित रखना हम सबके हाथ में है। अंत में यही कहूंगा कि आज के इस आधुनिक युग में हमें प्रकृति के प्रति अपनी निष्ठुरता एवं अनुशासनहीनता को त्यागने की जरूरत है। प्रकृति के साथ मनुष्य को सामंजस्य स्थापित करने की जरूरत है। हम विकास करें लेकिन प्रकृति का भी ध्यान रखें, प्रकृति की सीमाओं को कभी भी नहीं लांघें।
-सुनील कुमार महला

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