अधिकांश परिवारों में पति के हाथों में ही घर चलाने की सारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां रहती हैं। वह कमाता है और परिवार का भरण-पोषण करता है। कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां पति-पत्नी दोनों ही रोजगार से जुड़े होते हैं। इसके बावजूद परिवार में पुरूष का वर्चस्व ही रहता है।
पति घर आकर आराम में लीन हो जाता है और पत्नी घर के काम-काज, खाना बनाना, बच्चों को संभालना, घर की साफ-सफाई आदि करने में जुट जाती है। वह कितनी भी थकी हारी क्यों न आती हो परंतु स्वयं की जिम्मेदारियों से वह मुख नहीं मोड़ सकती। ऐसे समय में यदि पुरूष से जरा भी किसी काम के लिए कह दो तो वह झल्ला उठता है और अपना वर्चस्व बताता है कि, मैं पुरूष हूं, कमाता हूं, मेरा दर्जा ऊंचा है।’
मगर पत्नी यानी स्त्री की भी कुछ इच्छाएं और अभिलाषाएं होती हैं। वह भी चाहती है कि पुरूष उसके कार्यों में बराबर हाथ बंटाये। वह जो चाहती या सोचती है, उसे सुने और महसूस करे।
अक्सर यह देखा जाता है कि घर में छोटे निर्णयों से लेकर बड़े कार्यों तक पुरूष अपनी स्वेच्छा से करते हैं। वे जिंदगी में बड़ा से बड़ा निर्णय स्वयं ले लेते हैं और यदि यही कार्य स्त्री द्वारा किया जाता है तो उसे उदण्ड कहा जाता है। आज्ञा और अवहेलनाओं का दायरा उसे समझाया जाता है और बताया जाता है कि तुम स्त्री हो और मैं पुरूष। मैं हर निर्णय, फैसला लेने में सक्षम और स्वतंत्र हूं। तुम स्त्री हो, कमजोर हो, तुमसे ऊपर मैं हूं और हमसे ऊपर कोई नहीं।
यह जानने की कोशिश बहुत ही कम की जाती है कि पत्नी क्या चाहती है। उसकी भावनाएं कितनी ही महान क्यों न हों, दबायी ही जाती हैं। इसका एक प्रमुख कारण स्त्री की महत्वाकांक्षा को पुरूष के द्वारा महत्त्व न दिया जाना और दूसरा पुरूष का दंभ है। स्त्री द्वारा दिया गया परामर्श कितना भी सटीक क्यों न हो, उसे हताशा ही हाथ लगती है।
परिवार को सुचारू ढंग से चलाने के लिए यह जरूरी है कि पति, पत्नी की भावनाओं को भी समझे। पुरूष होने का दंभ त्याग दे। पत्नी को सिर्फ अपनी दोस्त और प्रेमिका समझे। उसकी राहों में सदैव प्रेम के फूल खिलाए। कुछ फैसले उसे स्वयं लेने का अधिकार दे। उसकी इच्छाओं व महत्वाकांक्षाओं को पहचान कर उसे मानसिक तौर पर सहयोग प्रदान करे।
ऐसे में पत्नी आपको सिर्फ पति ही नहीं, एक सच्चा दोस्त अनुभव करेगी। इससे आपसी संबंधों का दायरा मजबूत होगा और आपका दांपत्य जीवन सदा खुशी के फूलों से महकता रहेगा।
– राजू गुर्जर