Sunday, November 24, 2024

बिहार में नदियों पर बैराज बनाने के विरोध में उठते स्वर

हम अपनी जीवनदायिनी नदियों का शोषण खतरनाक स्तर तक कर चुके हैं। हमारी नदियां अपना मूल रूप खो चुकी हैं और बुरी तरह से अस्त-व्यस्त दशा में हैं। सिंचाई और हाइड्रोपावर के लिए बांध बने हैं, पानी को मनचाही दिशा में ले जाने के लिए बैराज बनाए गए हैं। फरक्का बराज के दुष्परिणाम को हम सभी देख चुके हैं फिर भी सरकारें चेत नहीं रही है और लगातार नये नये बांध और बराज बनाने का काम चालू है। भारत में विश्वबैंक की मदद से बड़े बांधों, बराजों द्वारा उपजाऊ धरती, जंगल सहित जैव विविधता से भरी प्रकृति और नदी से जुड़ी संस्कृति को स्वाहा कर विकास का यज्ञ चलाया जा रहा है।
गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख अनिल प्रकाश ने बिहार की नदियों पर  बराजों के निर्माण पर आपत्ति जतायी है और कहा है कि— बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सात नदियों पर ब्रिज बनाने की हड़बडी करने से पहले गंगा पर बने फरक्का बराज से उत्पन्न विनाशकारी बाढ़, कटाव,जल जमाव, भूमि के उसर होने, मछलियों के अकाल आदि भीषण स्थितियों का वैज्ञानिक आंकलन अवश्य करा लेना चाहिए। सरकार के बिहार की नदियों पर ब्रिज बनाने के फैसले के विरोध में व्यापक आंदोलन की तैयारी आरंभ हो गयी है। इस फैसले के विरोध में बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश में प्रथम चरण में हस्ताक्षर अभियान चलाया जाएगा। इसके उपरांत साथी संगठनों की बैठक कर आंदोलन की अगली रणनीति तय की जाएगी।अब तो मुजफ्फरपुर यानी तिरहुत में नारा गूंजने लगा है बागमती की धारा पर तटबंध बनाने आये हो, विश्वबैंक से कर्जा उठाकर हमें डुबाने आये हो। दरअसल नेपाल में होने वाली बारिश से बिहार में होने वाली तबाही को रोकने के लिए बिहार सरकार ने चार ब्रिज बनाने का निर्णय लिया है। बिहार के जल संसाधन विभाग के मंत्री विजय चौधरी के अनुसार नेपाल में हाई डैम बनाने का प्रस्ताव कई सालों से है, लेकिन वहां फिलहाल हाई डैम बनने की उम्मीद नहीं दिख रही है। नेपाल में हाई डैम का मामला इसलिए अटका पड़ा है कि वहां कोई भी जल संधि तभी लागू की जाएगी जब तक कि वहां की संसद इसे दो तिहाई बहुमत से पारित न कर दे। नेपाल की संसद के इस पेंच के कारण  बिहार सरकार को ब्रिज बनाने का फैसला लेना पड़ा। इस फैसले के तहत नेपाल से आने वाली चार नदियों में चार जगह पर बराज बनाए जाएंगे। यह बैराज कोसी नदी पर डगमारा में, गंडक नदी पर अरेराज में, महानंदा नदी पर मसान में और बागमती नदी पर डिंग में बनाए जाएंगे। डीपीआर तैयार किया जा रहा है। बाढ़ नियंत्रण को लेकर केंद्र सरकार ने बड़ी राशि दी है और  लोग सोच रहे हैं कि नेपाल से आने वाले बाढ़ के पानी से जो नुकसान होता है उसे रोकने के लिए इन चार जगह पर बड़े बराज बनाये जा रहे हैं, जिससे कि बाढ़ के पानी को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए विश्व बैंक से 4400 करोड़ रुपये की सहायता ली जा रही है। यह डीपीआर मार्च 2025 तक पूरा हो जाएगा।
नेपाल सरकार से भारत सरकार की कई बार हाई डैम बनाने को लेकर बातचीत हुई है। वर्ष 2004 में वहां संयुक्त रूप से विराटनगर में कार्यालय भी खोले गए हैं, लेकिन जहां भी सर्वे होता है लोग हंगामा करने लगते हैं। यही कारण है कि नेपाल में हाई डैम बनाना मुश्किल हो रहा है। इस स्थिति में बिहार सरकार ने अब बिहार में ही नेपाल से आने वाली चार नदियों पर ब्रिज बनाने का निर्णय लिया है। केंद्र सरकार ने हाल ही में बिहार के लिए प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ से संबंधित आपदाओं से निपटने के लिए 11,500 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता की घोषणा की है।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में भारत ने नेपाल में कोसी, बागमती और कमला नदी पर उच्च-स्तरीय बांध बनाने और संबंधित डीपीआर तैयार करने के लिए 2004 में विराटनगर (नेपाल) में एक संयुक्त परियोजना कार्यालय स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की थी।
इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है, विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार की बाढ़ को लेकर एक वैज्ञानिक ढंग से व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है उसके बाद नदी जोड़ योजना का काम हो या फिर ब्रिज बनाने का काम हो। विकास योजनाएं बनाते समय उसके सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय दुष्परिणामों को नजऱअंदाज़ करने का क्या नतीजा हो सकता है, इसे समझने के लिए फरक्का बैराज को एक मॉडल के रूप में देखा जाना चाहिए।
फरक्का बैराज 1975 में बनकर तैयार हुआ। मकसद था कि इसके जरिए 40 हजार क्यूसेक पानी का रुख बदल दिया जाये, ताकि कोलकाता बंदरगाह बाढ़ से बच सके। यह अनुमान करते समय नदी में आने वाले तलछट का अनुमान नहीं किया गया। परिणामस्वरूप, आवश्यकतानुसार पानी का रुख नहीं बदला जा सका। दुष्परिणाम आज सामने है। बैराज का जलाशय तलछट से ऊपर तक भरा है। पीछे से आनी वाली विशाल जलराशि पलटकर साल में कई-कई बार विनाश लाती है। ऊंची भूमि भी डूब का शिकार होने को विवश है। हजारों वर्ग किलोमीटर की फसल इससे नष्ट हो जाती हैं। फरक्का बैराज के बनने के बाद से समुद्र से चलकर धारा के विपरीत ऊपर की ओर आने वाली ढाई हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली कीमती हिल्सा मछली की बड़ी मात्रा  हम हर साल खो रहे हैं, सो अलग। नदी किनारे की गरीब-गुरबा आबादी फरक्का को अपना दुर्भाग्य मानकर हर रोज कोसती है। फरक्का बराज के बनने के बाद से बिहार में बाढ़ की आपदा बढ़ी है।
जानकार यह भी मानते हैं कि बिहार में बाढ़ को नियंत्रित करने वाली तटबंध आधारित नीति ने भी बाढ़ के संकट को बढ़ाने का काम किया है। उत्तर बिहार की नदियों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किमी थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीडि़त था। अब जब तटबंधों की लंबाई 3760 किमी हो गयी है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी जैसे-जैसे तटबंध बढ़े बिहार में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल भी बढ़ता चला गया।
सरकार का भी रवैया विचित्र है। एक ओर तो बिहार की बाढ़ के लिए फरक्का बराज को जिम्मेदार ठहराते हैं, तो दूसरी तरफ नए  ब्रिज की वकालत भी करते हैं। अनिल प्रकाश के अनुसार फरक्का बराज के अनुभवों से ही समझ लेना चाहिए था कि नदियों को रोककर बाढ़ का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
1870-75 से पहले बिहार में बाढ़ का जिक्र नहीं मिलता था। जब से यहां रेलवे की शुरुआत हुई और नदियों के स्वतंत्र बहाव में बाधा उत्पन्न होने लगी बाढ़ की समस्या सामने आने लगी। इसके बावजूद उत्तर बिहार में नदियों का अपना बेहतरीन तंत्र विकसित था। बड़ी नदियां, छोटी नदियों और शहरों से जुड़ी थीं और पूरे इलाके में पोखरों का जाल बिछा था। जब बारिश के दिनों में बड़ी नदियों में अधिक पानी होता था तो वह अपना अतिरिक्त पानी छोटी नदियों, चोरों और तालाबों में बांट देती थीं। इससे बाढ़ की समस्या नहीं होती थी। फिर जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटने लगता तो छोटी नदियां और चौर इन्हें अपना पानी वापस कर देतीं। इससे ये नदियां सदानीरा बनी रहतीं।
बिहार की 76 प्रतिशत आबादी और राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। वहीं आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश के कुल बाढ़ पीडि़त क्षेत्र का 16.5 प्रतिशत बिहार में पड़ता है और कुल बाढ़ पीडि़त आबादी का 22.1 प्रतिशत इसी राज्य के लोग हैं।
ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के विशेषज्ञ डॉ विद्यार्थी विकास के अनुसार बिहार में तटबंध का निर्माण पिछले 50 सालों में लगातार बढ़ता जा रहा है और बाढ़ का इलाका भी उसी अनुपात से बढ़ता जा रहा है। पहले 25 लाख हेक्टेयर बाढ़ प्रभावित इलाका था लेकिन आज 70 लाख हेक्टेयर से अधिक इलाका बाढ़ प्रभावित है।
1960 और 70 के दशक में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक बांधों का निर्माण हुआ। लेकिन हाल के वर्षों में बांधों के निर्माण की वैश्विक स्तर पर आलोचना हो रही है।इसी परिप्रेक्ष्य में नदियों की पंचायत  बिहार शोध संवाद द्वारा मुक्तिधाम, सिकन्दरपुर (बूढी गण्डक) नदी के तट पर, मुजफ्फरपुर में प्रीति कुमारी के अध्यक्षता में की गई। नदियों की पंचायत में अक्टूबर में 10 जिलों से सक्रिय नदी समस्याओं के चिंतकों एवं सक्रिय कर्मियों का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने का फैसला लिया गया, जिसमें युवाओं एवं महिलाओं की अधिक संख्या में भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। विभिन्न संगठनों के लोगों द्वारा नदी मुक्ति आभियान की शुरुआत की गई। नदियों की समस्याओं एवं निराकरण को लेकर पुस्तक का प्रकाशन अविलंब करने का निर्णय लिया गया। प्रीति कुमारी का कहना था कि बागमती, गंडक, बूढ़ी गंडक, लखनदेई, अधवारा समूह की नदियों, करेह, नून आदि नदियां अपनी जालनुमा उपस्थिति से जन जीवन को सदियों से सुखमय बनाती रही हैं, लेकिन विकास के नाम पर बन रहे तटबन्धों, बराजों, फैक्ट्रियों, मिलों और थर्मलपावर स्टेशनों से बह रहे जहरीले, काले, पीले कचरे के कारण हमारी जीवनदायी नदियों का दम घुट रहा है। नदियों पर जीने वाले नाविक, मल्लाह, किसान, सब्जी उगाने वाले, भैंस पालकर, बैल पालकर सुख से जीने वाले करोड़ों स्त्री पुरुषों की आजीविका और सांस्कृतिक जीवन बड़े गम्भीर संकट में है। नरेश सहनी के अनुसार गंगा एवं उससे जुडी तमाम नदियों को  बड़ी बड़ी देशी विदेशी कम्पनियों के हाथ में सौंपने की शुरुआत हो चुकी है। मल्लाहों को नदियों से खदेडऩे की चाल चली जा रही है। नदियों के किनारे के सौंदर्यीकरण के बहाने किसानों की बेशकीमती जमीनों पर भी लुटेरी कम्पनियों की बुरी नजर है। इन्ही सवालों को लेकर यह नदी पंचायत बुलाई गई है। गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रणेता पर्यावरणविद, सामाजिक चिंतक अनिल प्रकाश बताते हैं कि यह नदी पंचायत नदी मुक्ति आभियान की शुरुआत है। कठपुतली कलाकार सुनील सरला ने नदियों को अविरल बहने दो नदियों को निर्मल रहने दो, गंगा गंगा रटैत रहली, गंगा हथीन जलवा के रानी गंगा पूजे चलू हे सखी गीत के साथ सुनील सरला ने कठपुतली के माध्यम से नदी और पर्यावरण के दर्द को बताया। नदी पंचायत में  नरेश सहनी, राजेंद्र पटेल, संगीता सुभाषिनी, रामबाबू जितेंद्र यादव, चंदेश्वर राम, अनिल कुमार अनल, सुनील सरला, मीडिया सलाहकार, प्रोफेसर विजय कुमार जायसवाल, राम बाबू, राजेन्द्र पटेल, डॉक्टर हरेन्द्र कुमार, चन्देश्वर राम,  नीरज,  राम लखेंद्र यादव, डॉक्टर उमेश चन्द्र, ठाकुर देवेंद्र सिंह, जितेंद्र यादव, नवल सिंह, जगन्नाथ पासवान, मोनाजिऱ हसन, अनिल गुप्ता, जयचंद्र कुमार, बसंत लाल राम, कृष्णा प्रसाद, सोनपुर, पंकज कुमार निषाद, बैजू सहनी, अशोक सहनी, ऋषिकेश कुमार सीतामढ़ी, राम संयोग राय, अरविन्द प्रसाद कर्ण, राजेश कुमार, राम एकबाल राय, सुशील कुमार यादव, रामा शंकर राय, हुकुमदेव नारायण सिंह, मिथलेश सहनी, राजकुमार मंडल, नवल किशोर सिंह, बागमती संघर्ष मोर्चा, रविन्द्र किशोर सिंह, जलधर सहनी, सीतामढ़ी, राजाराम सहनी, सोनपुर सारण, राजेन्द्र पटेल, अनिल कुमार अनल, बिरेंद्र राय, लक्षणदेव प्रसाद सिंह, नदीम खान, नरेश कुमार, देवीलाल यादव, मुन्ना कुमार, सत्येनु कुमार, रामचन्द्र सहनी, दिवाकर घोष, रमेश कुमार केजरीवाल, संगीता सुभाषिनी, कौशल्या देवी, रिंकु देवी, गायत्री देवी, रंजीत साह, शंभू सहनी, जमदार मुखिया, राजेश राय, साई सेवादार अविनाश कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता रामबाबू ने इस सवाल पर निर्णायक अहिंसक लडा़ई का संकल्प लिया।
(कुमार कृष्णन-विनायक फीचर्स)

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