यह अपना है, यह पराया है, यह सोच ही दूषित है। ऐसी सोच वाला व्यक्ति ही अज्ञानी है। जो सब में स्वयं को देखता है, वहीं ज्ञानी है। किन्तु हम इस सच्चाई को विस्मृत कर देते हैं।
यदि दूसरा कोई ऐसी त्रुटि कर देता है, जिससे हमारा कोई अहित होता हो तो हम मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं, उसे अपना न समझने की भूल कर क्षमा कर ही नहीं पाते। हमारे भीतर क्षमा करने की शक्ति होनी चाहिए। क्षमा का गुण परमात्मा ने सबको दिया है, परन्तु हम उस गुण को विकसित नहीं कर पाते, क्योंकि हमारे संकीर्ण विचारों ने उस गुण पर धूल जमा दी है। अपने पुरूषार्थ से अपने अभ्यास से उसे हमें स्वच्छ करना ही होगा।
जब हम अपने द्वारा की गई त्रुटियों पर क्षमा पाने की दूसरों से अपेक्षा करते हैं तो हम उन अपेक्षाओं पर स्वयं क्यों खरे नहीं उतरते। हम केवल अपने बारे में ही सोचते हैं, अपना ही भला-बुरा देखते हैं। दूसरों के सुख-दुख से, दूसरों की भावनाओं से हमें कोई सरोकार है ही नहीं।
इस अवगुण से हम तभी बच सकते हैं, जब आत्मवत सर्व भूतेषू के सिद्धांत को अपनी अन्तरात्मा से स्वीकार कर लेंगे।