आज के आधुनिक युग में भी अनेक ऐसी कुरीतियां हैं जिनकी वजह से समाज पिछड़ा हुआ है। देश के सबसे बड़े प्रदेश राजस्थान में मृत्युभोज ऐसी ही एक समस्या है। प्रदेश में मृत्युभोज के खिलाफ कानून बना है और इसके खिलाफ आवाज भी उठती रहती है लेकिन इसके बाजवूद इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगा पाना संभव नहीं हो पाया है।
पिछले काफी समय से विभिन्न समाजों के सामाजिक व जाति आधारित सम्मेलन हो रहे हैं। इन सम्मेलनों व सोशल मीडिया पर बहस छिड़ी हुई है कि मृत्युभोज करना चाहिए या बंद करना चाहिए? मृत्युभोज को बंद करवाने के लिए खुले तौर पर 1935 से सीकर से शुरूआत हुई थी, जिसके बाद धीरे-धीरे सामूहिक तौर पर मृत्युभोज को बंद करने के लिए आवाज उठने लगी। सामाजिक दबाव के कारण राजस्थान में मृत्युभोज निवारण अधिनियम 1960 पारित हो गया। अधिनियम पारित होने के बाद इसकी पालना करवाने का दायित्व पंच, सरपंच व पुलिस प्रशासन का था लेकिन इनकी बदनीयती के कारण यह अधिनियम लाल बस्ते में बंद होकर रह गया।
मुझे लगता है कि मृत्युभोज, रीति की आड़ में समाज के पंच-पटेलों द्वारा थोपा गया सामाजिक टैक्स है जिसे चुकता नहीं करने वाले परिवार को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनका सामाजिक स्तर पर तिरस्कार किया जाता है। यहां तक कि अगर कोई परिवार कमजोर है तो उसे समाज से बहिष्कृत करने या पंचायत करके दण्डित किया जाता है। आज भी पुलिस-प्रशासन की मौन सहमति के कारण इन पंच-पटेलों के हौसले बुलंद हंै।
मृत्युभोज मानवीय, शास्त्रीय व आर्थिक दृष्टि से कतई उचित नहीं है। बीते दो दशकों में मैंने अलग-अलग जगह के अनुभवों से महसूस किया है कि मृत्युभोज सामाजिक कलंक व अमानवीय कृत्य होने साथ-साथ परिवार के उत्थान की रफ्तार को रोकने का कार्य करता है। जैसे स्पीड ब्रेकर गाड़ी की रफ्तार को कम करने पर मजबूर करता है, ठीक उसी प्रकार मृत्युभोज परिवार के उत्थान, प्रगति की गति को एकदम रोक देता है या धीमा कर देता है। एक सामान्य परिवार बड़ी मुश्किल से 8-10 साल में जितनी बचत कर पाता है और उसे वह अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा पर खर्च करने का सपना संजोये रहता है लेकिन एक दशक में प्रत्येक परिवार में कोई न कोई सदस्य हमेशा के लिए बिछुड़ जाता है। इस दु:ख की घड़ी में समाज के पंच-पटेल मृत्यु भोज में मिठाई, डोडा, अमल, तम्बाखू, पेहरावणी आदि के नाम पर अनावश्यक खर्च कराकर उस बचत को उड़ा देते हैं। इसके अलावा बच्चों की शिक्षा, मकान, शादी-भात इत्यादि का खर्च अलग से होता है, जिसके लिए परिवार को कर्ज लेना पड़ता है। अगर कर्ज नहीं मिलता है तो उस परिवार का मुखिया सबसे पहले बच्चों की पढ़ाई छुड़वाकर मजदूरी या काम लगा देता है। अगर कर्ज अधिक है तो जमीन व गहने गिरवी रखने पड़ते हैं। अगर किसी परिवार में मृत्यु पहले हो गई तो अन्य आयोजनों के लिए कर्ज लेना पड़ता है। इस प्रकार एक सामान्य परिवार विभिन्न तरह की रूढ़ीवादी परम्पराओं के कारण कर्ज के दुष्चक्र से बाहर ही नहीं निकल सकता, जिसके कारण उसका बच्चा अन्य बच्चों से पिछड़ जाता है और मुख्यधारा से कटता चला जाता है।
आज किसी भी परिवार या बच्चे के उत्थान के लिए शिक्षा का मंदिर ही एक मात्र ऐसा मंदिर है जहां खर्च की हुई राशि जीवन भर प्रसाद के रूप में स्वयं को मिलती है और व्यक्ति बेहतर जीवन यापन करता है। अगर हम मानवीय, शास्त्रीय दृष्टिकोण रखते हुए मृत्युभोज करना बंद कर दें तो लोग कर्ज के बोझ से बचकर अपने परिवार की भावी पीढ़ी को अच्छी शिक्षा दिलवाने पर खर्च बढ़ा सकते हैं। परिवार में शिक्षा का स्तर सुधरेगा तो लोगों के बच्चों को अच्छा रोजगार मिलेगा, वह अच्छा व्यवसाय करेंगे और प्रत्येक कार्य को अपने तर्क की कसौटी पर कस कर ही निर्णय कर पाएंगे। इस प्रकार परम्परा व पुण्य के नाम पर पाखण्डवाद, आडम्बरवाद से बचा जा सकता है।
मृत्युभोज अमानवीय कृत्य कैसे है, इस पर विचार करना जरूरी है। अगर कोई पशु-पक्षी मर जाता है तो साथी पशु-पक्षियों की आंखों से दो-तीन दिन तक आंसू निकलते है और वह चारा-दाना नहीं खाते हैं, यह उनकी संवेदना का परिणाम है। इसी प्रकार परिवार से किसी भी सदस्य का बिछुडऩा हमें गम देता है, मन को व्यथित, विचलित करता है और प्रत्येक सदस्य शोक में रहता है, उसे भी गम में भोजन अच्छा नहीं लगता है लेकिन पंच, पटेलों की बातों में आकर इंसान मानवीय भावना को भूल कर मृत्युभोज को अपनी आन-बान-शान से जोड़कर अमानवीय कृत्य करता है, कानूनन जुर्म करता है।
जो लोग इसे शास्त्रसम्मत, परम्परा, संस्कार, रीति मानते हैं, वो यह बतायें कि कौनसे शास्त्र में मृत्युभोज का वर्णन है? किस शास्त्र में हलवा, जलेबी, लड्डू, बूंदी खाने-खिलाने के लिए कहा गया है? इसके विपरीत महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनै: अर्थात जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। इसके अलावा गुरूड़ पुराण में 12 दिन तक मृतक के घर अन्न-जल ग्रहण करने को वर्जित बताया गया है जबकि मृत्युभोज में प्रत्येक कृत्य (मिठाई बनाना, सब्जी बनाना, आटा लगाना, खाना खिलाना इत्यादि) भीगी पलकों को पोंछते हुए करते हैं। इसलिए मृत्युभोज अमानवीय कृत्य है जो कानूनन जुर्म भी है। हिन्दू धर्म में 16 संस्कार बताये गये हैं, जिनमें प्रथम संस्कार गर्भाधान व अंतिम संस्कार अन्त्येष्टि है तो यह सत्रहवां संस्कार मृत्युभोज कहां से आया, किसने व कब बनाया, इसे सोचने, समझने व विचारने की जरूरत है।
यह बड़ा सवाल है कि मृत्युभोज कानूनन जुर्म होने और सामाजिक प्रयासों के बावजूद बंद क्यों नहीं हो रहा है? यह सब समाज के पंच-पटेलों के कारण हो रहा है। जिन पंच-पटेलों का दायित्व सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का है, वे ही इन्हें बढ़ावा दे रहे हैं। वह सामाजिक ताने-बाने, इज्जत, मान-सम्मान, पुण्य की दुहाई देकर शोक संतप्त परिवार पर मृत्यु भोज के लिए दबाव बनाते हैं। एक मृत्युभोज पर कम से कम 3 से 5 लाख रूपये का खर्च आता है। प्रत्येक मृत्यु अचानक होती है और उसके लिए घर पर पैसा होना जरूरी नहीं है। इसलिए पंच, पटेलों के कहने पर दुकानदार (घी, चीनी, बेसन इत्यादि राशन व कपड़ा) उधार देने के लिए तैयार बैठे रहते हैं क्योंकि पैसे दिलवाने की जिम्मेदारी पांच आदमी लेते हैं। उसे अपना व्यापार भी चलाना है। हर गांव में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मजबूरी का फायदा उठाकर मोटे ब्याज पर पैसा देते हैं। पैसे के बदले में पंच, पटेलों की जिम्मेदारी के साथ-साथ जमीन व गहने भी गिरवी रखवाने की कोशिश करते हैं ताकि कर्ज चुकता नहीं होने पर उन्हें हड़पा जा सके।
मृत्युभोज खत्म होने का सबसे बड़ा शासन एवं प्रशासन का रुचि नहीं लेना है। अगर राजस्थान मृत्युभोज निवारण अधिनियम-1960 को लागू करने में पुलिस-प्रशासन रुचि ले तो बड़ी हद तक इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। अगर पुलिस-प्रशासन और सरकारों के मुखिया चाहें तो मृत्युभोज एक झटके में बंद हो सकता है। इस कानून में मृत्यु भोज करने का दोषी पाये जाने पर एक साल सजा का प्रावधान है। पंच, सरपंच, ग्राम सेवक, पटवारी द्वारा मृत्युभोज की जानकारी प्रशासन को नहीं देने पर इनके विरूद्ध की कार्यवाही का प्रावधान है। लेकिन कोई भी अपनी सही ढ़ंग से जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं है। मृत्युभोज एक ऐसी सामाजिक बुराई है, जिसके खात्मे के लिए सबको आगे आना होगा। आम आदमी, सरकारी कर्मचारी, प्रशासन और पुलिस सबको अपनी जवाबदेही समझनी होगी। अगर दान-पुण्य करना ही है तो जरूरतमंदों की मदद का बीड़ा उठाया जा सकता है।
पदमेश कुमार किसान
(लेखक राजस्थान में मृत्युभोज छोड़ो अभियान के सक्रिय कार्यकर्ता हैं)