मन जितना निर्मल होगा, जीवन उतना ही सरल और सफल होगा। निर्मल मन परमार्थ कार्यों की ओर उन्मुख होता है। निर्मल मन ही प्रभु की साधना में रत होना चाहता है, निर्मल मन ही समाज सुधारक की भूमिका निभाने की चाह रखता है। मन की मलीनता मिटाकर उसे पवित्र बनाये बिना न तो प्रेम में स्थिरता होती है और भक्ति में गहनता, निर्मल मन में ही प्रेम के बीज पनपते हैं।
आनन्द रस की वर्षा होती है, साथ ही प्रेम और भक्ति का पावन जल ही कलुषित मन को धोकर निर्मल बनाता है। संत कबीर इसी मत का समर्थन करते हुए कहते हैं-माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर अर्थात जब मन की कलुषता समाप्त होकर पवित्र मन से प्रभु का स्मरण किया जायेगा तो व्यक्ति प्रभु प्राप्ति का अधिकारी हो जायेगा।
मन को निर्मल बनाने के लिए सकारात्मक सोच, परहितकारी भावना, चित्त की प्रसन्नता आवश्यक उपांग है। मन की पवित्रता, तन की पवित्रता की प्रेरक होती है। मन की पवित्रता तन की स्वस्थता की अनिवार्य दशा है।
दैहिक पवित्रता के अभाव में रूग्णता की सम्भावना सदा बनी रहती है। पवित्र एवं स्वस्थ शरीर ही पर सेवा के लिए उपयुक्त एवं सक्षम होता है और सेवा ही शरीर का कर्म और कर्तव्य होता है।