सहयोग और उपकार जीवन का मूल तत्व है। समस्त जीव जगत पारस्परिक उपकार और सहयोग से गति पाता है, परन्तु जब हम इस संदर्भ में मनुष्य जीवन पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश मनुष्य जगत से सहयोग तो पाते हैं पर बदले में अपना सहयोग नहीं देते।
आज का प्रदूषित वातावरण इसका ज्वलंत प्रमाण है। मनुष्य ने प्रकृति से दोनों हाथों से लिया है, परन्तु प्रकृति को लौटाने में वह बहुत कंजूस है। आदान प्रदान के सामंजस्य से ही सहयोग में निरन्तरता बनी रह सकती है। मैं मात्र लेता रहूं और बदले में कुछ न दूं तो अपने लेने के क्रम को सुरक्षित नहीं रख पाऊंगा।
मैं ले रहा हूं इसलिए मेरा दायित्व बनता है कि मैं कुछ दूं भी। समाज के सहयोग का जल, वायु प्रयोग कर हम बड़े होते हैं। इसलिए पारस्परिक सहयोग और उपकार भाव हमारा धर्म होना चाहिए, हमारा स्वभाव होना चाहिए। हमें उन प्रसंगों और परिस्थितियों को पीठ नहीं दिखानी चाहिए जहां हमारा सहयोग अपेक्षित है।
हमें प्रसन्न मन से अपना सहयोग देना चाहिए, परन्तु बहुधा होता इसके विपरीत है। जहां भी हमारे सहयोग की अपेक्षा होती है हम वहां से आंख मूंदने का प्रयास करते हैं। यदि सहयोग देते भी हैं तो भीतर गर्व पाल लेते हैं। अपने द्वारा किये गये उपकार और सहयोग को भूल जाने वाला, किन्तु दूसरे का उपकार सदैव स्मरण रखने वाला और इसके लिए स्वयं को समर्पित करने वाला वस्तुत: श्रेष्ठ मानव होता है।