रामचरित मानस की रचना के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासु ने तुलसीदास जी से कहा कि निश्चय ही श्रीराम मर्यादा पुरूषोत्तम थे इसलिए आपने रामचरित की रचना की। तुलसीदास ने कहा ‘नहीं मर्यादा पुरूषोत्तम तो कई अन्य पुरूष भी हुए हैं तो फिर श्रीराम एक कुशल शासक हुए, तो फिर तुलसीदास ने कहा कि नहीं राम से भी बड़े और कुशल शासक इस देश में हुए हैं।
जिज्ञासु ने प्रश्र को आगे बढ़ाया कि क्या राम के सत्य से आप प्रभावित हुए, तुलसीदास बोले कि हरिश्चन्द्र क्या कम सत्यवादी थे? जिज्ञासु ने भाव विह्वल होकर पूछा फिर श्रीराम के किस चमत्कार से चमत्कृत होकर आपने रामचरित की रचना की। तब तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम की जिस चमत्कारिक महिमा ने मुझे सर्वाधिक भाव-विभोर किया तथा रामचरित लिखने के लिए प्रेरित किया वह थी श्रीराम की समता- साधना।
संध्या को श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी, पर श्रीराम के मुख पर प्रसन्नता न थी। प्रभात होते श्रीराम वनगमन कर रहे थे, उस समय उनके मुख पर अप्रसन्नता का कोई भाव न था। श्रीराम की इस स्थित प्रज्ञता और समता को सुनकर और अनुभव करके मैं गदगद हो गया और कलम मेरे हाथों में आ गई। सुख में प्रसन्न न होना और दुख में दुखी न होना ही स्थित प्रज्ञता है। स्थित प्रज्ञता की साधना सहज नहीं है।