प्रत्येक प्रकार की परिस्थिति चाहे वे अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो, में समभावता और सहजता को स्थित प्रज्ञता कहा जाता है। स्थित प्रज्ञता की साधना सहज और सरल नहीं है। जब सब ओर से सम्मान बरस रहा हो, सम्पत्ति बरस रही हो, उनसे असम्पृक्त और अनासक्त बने रहना कठिनतम है।
एक छोटी सी सफलता व्यक्ति को आह्लादित बना देती है, थोडा सा सम्मान हमें निहाल कर जाता है, पर जब साम्राज्य मिल रहा हो, चहुंओर यशगान हो रहा हो, ऐसे में अपने चित्त को सम्भावी बनाये रखना कठिनतम है और फिर पलक झपकते सब बदल जाये, रेशमी परिधान के स्थान पर वल्कल परिधान बन जाये, सिंहासन के स्थान पर वन के शूल भाग्य लिखने लगे और फिर भी मन के किसी कोने में अप्रसन्नता न उतरे, ऐसे में भी मुख पर फूल खिले क्या यह साधारण बात है।
नि:संदेह श्रीराम जैसा मर्यादा पुरूषोत्तम ही ऐसी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समभावी रह सकता है। समता स्थित प्रज्ञता जीवन का अमृत है, जो जीवन को अमृत के रूप में जीना चाहते हैं, उन्हें समता को अपने प्राणों में उतारना होगा। इसके विपरीत कह सकते हैं कि जीवन उन्हीं के लिए अमृत है, जो जीवन को एक खेल की तरह जीते हैं।
सच्चा खिलाड़ी न जीत में प्रसन्न होता है न हार में निराश और दुखी। स्थित प्रज्ञ व्यक्ति भी जीवन को एक खेल से अधिक कुछ नहीं मानता।