आपसे बलवान व्यक्ति आप को अपमानित और प्रताडि़त भी करता है तो आप मौन रहकर और मुस्कराकर सहन कर लेते हो, परन्तु वह मौन न तो आपकी क्षमा है और न वह मुस्कान आपका मैत्री भाव है। वह आपकी विवशता है। वह मौन और मुस्कान अपके भय का परिणाम है, क्षमा का परिणाम नहीं।
आपका अपराधी आप से कमजोर हो उसे दंडित करने में आप पूर्ण सक्षम हो, समर्थ हो, स्वतंत्र हो, तब यदि आप मौन और मुस्कान को धारण करते हो तो आपका वह मौन आपकी क्षमा है, आपकी वह मुस्कान आपकी मैत्री है। इसी क्षमा के लिए कहा गया है कि क्षमा तुल्य तपोनास्ति।
आपका मित्र आपको कुछ भी कह देता है उसे आप मित्र वाक्य मानकर सहज भाव से स्वीकार कर लेते हो, मित्र के कटु वचनों को भी मित्र का उपहार मानते हो। ऐसे ही प्रत्येक प्राणी के प्रति जब मैत्री का भाव उदय होता है, तभी क्षमा के फूल खिलते हैं। हृदय मैत्री भाव से पूर्ण बन जाये तो वैर विरोध स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं।
‘जगत के समस्त प्राणी हमारे मित्र हैं यह सच्चे क्षमाशील का हृदय मान है। सभी मेरे मित्र हैं तो मैं विरोध किससे करूं? सब मेरे अपने हैं तो किसे दंडित करूं? मैत्री को आत्म सूत्र बनाईये, प्रेम को प्राणों का प्रकाश बनाईये। आप पायेंगे कि इस जगत में सब जीव आपके अपने हैं। कोई गैर नहीं, गैर नहीं तो वैर कैसा?