परमात्मा तथा उसके दिव्य स्वरूप का शब्दों अथवा व्याख्यानों की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। परमात्मा तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। उसके दर्शनों से आनन्दित होने के लिए प्रत्येक मनुष्य को अपने भीतर जाकर उसका प्रत्यक्ष अनुभव करना होगा। केवल बाहरी आडम्बरों से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है।
पारब्रह्म परमेश्वर के अनन्त तेज का अनुमान कल्पनाओं द्वारा सम्भव नहीं है। उसकी स्तुति के लिए सारे शब्दकोष भी कम है। शब्दों के द्वारा उसकी शोभा का वर्णन असम्भव है।
प्रभु को अपने भीतर देखने पर ही उसकी दिव्यता का बोध हो सकता है, धर्म परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति है। केवल ईश्वरीय चर्चाएं, अनुभव रहित विश्वास अथवा शास्त्रों का पठन-पाठन कर लेना ही धर्म नहीं। उसके दिव्य प्रकाश का साक्षात्कार कर लेने के उपरान्त ही व्यक्ति आन्तरिक ऊर्जा से भरपूर हो पाता है, पर केवल एक जन्म में यह सम्भव नहीं। कई जन्मों की साधना से ही यह सम्भव हो पाता है।