आज के समय मनुष्य इसलिए दुखी, सन्तप्त है और असंतुष्ट है कि वह ज्ञान होते हुए भी काम, क्रोध, लोभ के वशीभूत हो ज्ञान के विपरीत आचरण करता है। यह जानते हुए भी कि मूल्य आधारित सुख एवं शान्तिपूर्ण सामाजिक जीवन के लिए संयमपूर्ण आचरण अतिआवश्यक है वह अप्राकृतिक रूप से स्वछन्द व्यवहार करता है। देवताओं और राक्षसों में मात्र इतना ही तो अंतर है कि देवताओं का आचरण ज्ञान, धर्म एवं संयम से पूर्ण होता है और राक्षसों का अज्ञान एवं अधर्मपूर्ण।
देवताओं और राक्षसों की शारीरिक रचना तो समान है उनकी नस्ल में भी कोई भिन्नता नहीं होती, किन्तु उनके व्यवहार और आचरण से यह ज्ञान हो जाता है कि वह किस श्रेणी का प्राणी है। हमारे विपरीत आचरण का सबसे बड़ा कारण हमारा दूसरों के वैभव को देखकर वैसा ही बनने और वैसा ही वैभव पाने की कमजोरी है, उसके लिए हम उचित अनुचित जो भी समयानुसार आवश्यक हो वह मार्ग अपनाते है, जिसका परिणाम पतन, तनाव पीड़ा एवं नाना प्रकार के कष्टों में होता है। सुख पाना है तो दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर अपना धैर्य मत खोइये। परिश्रम और ईमानदारी की अपनी कमाई में ही संतुष्ट रहे।